मंगलवार, 9 दिसंबर 2014

अब तो दरवाजा खोलो !

अब तो दरवाजा खोलो !

अनंत काल से
अनंत योनियों में
अनंत रूपों और
अनंत उमंगों से--
तुम्हें , तुम्हारे ही बनाए
रास्तों पर तलाश रहा हूँ।

अनंत आकाश के आच्छादन में
तुमने अपने रास्तों को
ऊँचे वृक्षों , रंग बिरंगे फूलों से सजाया है
तुम्हारी प्रकृति के
मायाचारी रंग मुझ अबोध को
बरबस लुभा लेते हैं , और
मैं विविधवर्णी रंगों में खो जाता हूँ।

तुम छिपे रहते हो,
तुम्हें ढूंढ़ नहीं पाता हूँ।
प्रेम करता हूँ प्रभु , तो
तुम बांसुरी बजाते हो।
अपनी थोथी जानकारियों के
ज्ञान को बघारता हूँ ,तो
तुम शंख बजाते हो।
उदास हो कर बैठ जाता हूँ , तो
आत्मीय बन कर्ण -कुहरों में
मधुर मदिर फुसफुसाते हो ।
थक हार कर सो जाता हूँ ,तो
स्वप्न में आ मुझे जगाते हो।
बेहद तंग गलियों में घुमाते हो ,
प्रभु ,समझ नहीं आता --
प्रत्येक रास्ते पर तुम्हारा
दरवाजा महसूसता तो हूँ ,पर
द्वार दिखता नहीं है।

तुम्हीं बताओ कब तुम्हारे द्वार के
अदृश्य पट खुलेंगे ?
कब मुझे मायाचारी प्रकृति के कुचक्र से
तुम मुक्त करोगे ?
कब अपनी लुका-छीपी का खेल
तुम ही खत्म करोगे?
कब मैं तुम्हें तलाश पाऊंगा ?

कब खोलोगे तुम कृपालु
अपना दरवाजा ?............. अरविन्द

जय राम जी की !

जय राम जी की !

जय राम जी की !
कवि जी ! जय राम जी की।
कामनाओं की देख रहा हूँ
बसी हुई बसती।
जय राम जी की !

नया नया है नित जीवन यह
नित नवीन अनुभव -अभिलाषी
नित नए को चाहे जग
नया कंथा नयी कंथी ।
नया रस रास ,नया भाव
नयी मौलिकता अन्वेषी।
नया पंथ हो ,नए शब्द हों
तू अब तक बना हुआ पुरातन पंथी।
जय राम जी की !

पुराण काल का प्रेम तुम्हारा
बासी प्रेम कहानी।
बासी उपमा , अलंकार सभी , सब
बासी शैली बिंब बेचारी।
नायिका तो है श्याममुखी
तू कहता उसे चंद्रमुखी।
जय राम जी की !

कवि तो क्रांतदर्शी होता है
न होता कुँए का डड्डू।
कब तक टर्र टर्र सुनेगें सारे
तू अटका देहबिंदु पर बुद्धू।
गहरे उतरो ,मन में गहरे
बह रही नदी विविधा जीवन की ।
जय राम जी की !

सत्य कटु मधु चहुँ दिशि व्यापे
देख चमकते जग जीवन में
भांति -भांति के रवि शशि।
जय राम जी की ! …………… अरविन्द

कल मुझे समुद्र मिला था ।

कल मुझे समुद्र मिला था ।

बहुत उल्लास से
बहुत आनन्द से
आत्मीयता पूर्ण हृदय से
और कुछ अपरिचित से
झिझकते हुए
उसने मेरा दरवाजा खटखटाया।

बहुत दिनों बाद
मेरे द्वार पर दस्तक हुई थी
औचक से , कुछ अनमने भाव से
कुछ जिज्ञासा और कौतुहल से
मैने द्वार खोला।

खुलते ही जैसे
अनंत ने मुझे आच्छादित कर लिया हो
समुद्र ने मुझे बाहों में भर लिया ।
ऐसे की जैसे पिता ने
अबोध बालक को
आकाश में उछाल कर
फिर लपक लिया ।
सर्वत्र मेरी खिलखिलाहट का
स्वर ,मंदिर में आरती के समय
बजने वाली घंटियों की
मधुर ध्वनि से भर गया।

आज मेरे द्वार पर
समुद्र आया।

उसने कहा -
क्यों एक बूंद की तरह
सीमित हो कर
अपने होने को कलंकित कर रहे हो ?
बाहर आओ,और अपने जीने को
उन्मुक्त आकाश सा लहराने दो।
क्यों बंद दरवाजे में
घुटते हो ,अस्तित्व से जुडो और
मेरी तरह लहराओ।

अपने भीतर छिपे आनन्द के
अनंत को बुलाओ।
जगाओ।
खुद अनंत हो जाओ।

अब मैं ही समद्र हूँ
अपने आनन्द में लहराता हुआ
मैं ही अनंत हूँ
अपने होने में जगमगाता हुआ।
उमड़ घुमड़ कर
अपनी लहरों को नचाता हुआ ।

आज समुद्र आया था और
मुझे समुद्र कर
अपने संग ले गया ।...........अरविन्द

उदास सा मन

गर्दन झुकाये ,उदास सा मन
आज चिंतन रत है।

सोचता है कि
लोग बेवजह उसे दोष देते हैं।
गधे से गिरते हैं और
कुम्हार को पीटते हैं।
आदमी दुखी या सुखी हो
मन कहीं कारण नहीं।
जो है ही सत्ताहीन
दोष या प्रशंसा का कहीं
अधिकारी नहीं।
राम राम रटने जाए जी
और कहीं बैठ
औटन लग जाए
आदमी कपास ,
मन का कहाँ दोष ?
मन की कहाँ प्यास ?
निर्णय लेता गलत कोई अन्य
पिटाई हो जाती बेवजह
मन की ख़ास।
आज मन है बड़ा उदास !

दुविधा में जीता
आदमी।
संकल्पहीन ,दृढ़ चित्त हीन
पंचेन्द्रिय आदत गुलाम।
न बुद्धि की सुनता
न मन की है गुनता।
केवल अपना स्वार्थ है तकता।
उसे चाहता ,जिससे कुछ लखता।
देखता कहीं ओर और गड्डे में
मूर्ख खुद गिरता।
फिर क्यों दोष मन पर मढ़ता ?
कामना नहीं जगती मन में
सदा बसती यह इन्द्रिय -स्मृति के तन में।
दोष नहीं मन का।

निर्णय के क्षण में
सुनता नहीं मन की
न्याय ,समता की
मर्यादा या नीति की
करता वही यहां हो
लोभ ,मोह , ममता।
फिर भी भृकुटि मन पर है तनता।

पागलपन है बुद्धि का ,कुबुद्धि का ,
इन्द्रिय आसक्ति और अशक्त संकल्प का ।
छोटे छोटे गलत निर्णय
लेता कोई अन्य
दोष मन पर मढ़ता।
करता पाखंड ,स्वार्थ
अविचारित निज हित की
फिर जलता मुझ मन को
अग्नि में पश्चाताप की।

आज अन्तर्लीन मन उदास है। ………… अरविन्द

हे रवि

हे रवि मार्तण्ड भास्कर !
आलोक दो जीवन को मेरे प्रभाकर !
तमा तामस तम अज्ञान दूर हो
खिले हृत - कमल, विमल रक्तोत्पल।

भ्रम विभ्रम ही माया तृष्णा
मोह जनित मानव मृण्मना
मृगतृष्णा में क्षरित हो रही
भुक्ति मुक्ति दिग्वसना।

हे पतंग !
दो ज्योतित रसना।

विमल वाणी ,मन विमल चित्त हो
विमल भाव ,गुण विमल हृत हो
विमल शब्द में विमला विलसे
ज्ञान क्रिया में तव प्रभा हुलसे
निरभ्र कामना हो
सर्व कल्याण प्रमा।

हे मार्तण्ड ! हे आलोकित मित्र मना !………अरविन्द

हम पुकारते हैं

हम पुकारते हैं
रोज ,उसे अपनी प्रार्थनाओं में
हम रोज पुकारते हैं उसे
मन्त्रों की याचनाओं में .
पुकारते हैं हम जिसे
उसे
जानते नहीं होते।
न रूप से ,न रंग से
न गंध से , न शब्द
और न स्पर्श से ,
उसे पहचानते नहीं होते।

जिज्ञासा की तलहटियों में
नाचते प्रश्न --
ज्ञान की लालसाओं में
नाम देना चाहते हैं
उसे अपना समझना और
उसका होना चाहते हैं।

दृश्य के पीछे की
सत्ता उसे मानते हैं।
अस्तित्व के रचना का
नियंता उसे जानते हैं।

यही
हमारी आदिम इच्छा
जन्म दे जाती है --
झूठी मर्यादाओं को।
भक्ति की वीथियों और
मन्त्रों की प्रार्थनाओं को।

आदिम इच्छा की ही परिणति है --
हमारे तुम्हारे सब रूप नाम
राम ,घनश्याम
गोविन्द ,माधव
सर्वेश्वर विष्णु धाम।

आदिम इच्छा ने रच दिए
अनेक ग्रन्थ तथाकथित
सद्भावनाओं में महान।

हम ,पर जान नहीं पाये
उस अज्ञात की सम्भावनाओं को।
अनुभूति में विदयमान
अज्ञात जिज्ञासा की
परछाइयों को।

नहीं जान पाये अपने
स्व की ही विभावनाओं को।

एक है वह
मानकर भी
हमने दे दिया जन्म
अनेकताओं को।
बाँट दिया उसे
धर्म की धुंधताओं में
जगत की विपुल मूर्खताओं में ।

रंग रूप सब उसके न्यारे थे।
ज्ञानी सभी भेदभाव भरे हमारे थे।
इसीलिए हम हो नहीं सके उसके जो
वास्तव में हमारे थे।

पाखण्ड सारा ज्ञान रहा
पाखण्ड सारी साधना
पाखण्ड हमारा ध्यान रहा
पाखण्ड रही उपासना।

जो तत्व भीतर सिक्त है
हम रिक्त उससे रह गये।
पंथ प्रेम एक था --
हम बहु भेद -पंथ बह गये। …………… अरविन्द

मुद्दत बाद

मुद्दत बाद आज उसका गुलाबी खत आया है
माघ महीने में सूरज जैसे निकल आया है।

बहुत कह रहीं हैं वे मासूम आँखें चुपचाप
पहाड़ी पर जैसे अकेला वृक्ष लहलहाया है।

वह चुप नहीं रह सकती बहुत ही बतियाती है
मुसीबत का पिटारा प्रभु तुमने क्यों थमाया है।

सकूँ मिलता ही नहीं घर में और न जंगल में
सागर की लहरों सा शोर मन में समाया है।

वे पूछते रहते हैं मुझसे मेरे मौन का कारण
जिंदगी की व्यस्तताओं ने बहुत सताया है।

अर्थ ढूंढे थे जो हमने दुनिया में जीने के लिए
कोरे शब्दों के उजले जंजालों ने खूब भरमाया है ।

वह आता है चुपचाप और बांसुरी सुना जाता है
साँवला अपने सब रंगों में मुझे बहुत भाया है। …………अरविन्द

जिंदगी

जिंदगी कभी पानी कभी अमृत कभी जहर है
कभी मरुथल कभी उपवन कभी यह कहर है।

कभी गाना कभी रोना कभी है फूल सा हँसना
कभी लुटना कभी बँटना कभी धूल में धंसना
कभी मंजिल शिखरों की कभी खाई में गिरना
कभी हिंसा कभी करुणा कभी प्यार की रचना
बहुत रंग बिरंगी है कभी यह उजड़ी उदासी सी
कभी फुलझड़ीहो नाचे उल्लसित किलकारी सी
कभी यह त्यागती सर्वस, कभी वैरागी हो जावे
कभी अप्सरा की आहट निःशंक भोगी हो जावे
कभी मचलन कभी लटकन सी मसकन सहर है
कभी सागर कभी लहर कभी नदिया की सैर है। ............. अरविन्द