अब तो दरवाजा खोलो !
अनंत काल से
अनंत योनियों में
अनंत रूपों और
अनंत उमंगों से--
तुम्हें , तुम्हारे ही बनाए
रास्तों पर तलाश रहा हूँ।
अनंत आकाश के आच्छादन में
तुमने अपने रास्तों को
ऊँचे वृक्षों , रंग बिरंगे फूलों से सजाया है
तुम्हारी प्रकृति के
मायाचारी रंग मुझ अबोध को
बरबस लुभा लेते हैं , और
मैं विविधवर्णी रंगों में खो जाता हूँ।
तुम छिपे रहते हो,
तुम्हें ढूंढ़ नहीं पाता हूँ।
प्रेम करता हूँ प्रभु , तो
तुम बांसुरी बजाते हो।
अपनी थोथी जानकारियों के
ज्ञान को बघारता हूँ ,तो
तुम शंख बजाते हो।
उदास हो कर बैठ जाता हूँ , तो
आत्मीय बन कर्ण -कुहरों में
मधुर मदिर फुसफुसाते हो ।
थक हार कर सो जाता हूँ ,तो
स्वप्न में आ मुझे जगाते हो।
बेहद तंग गलियों में घुमाते हो ,
प्रभु ,समझ नहीं आता --
प्रत्येक रास्ते पर तुम्हारा
दरवाजा महसूसता तो हूँ ,पर
द्वार दिखता नहीं है।
तुम्हीं बताओ कब तुम्हारे द्वार के
अदृश्य पट खुलेंगे ?
कब मुझे मायाचारी प्रकृति के कुचक्र से
तुम मुक्त करोगे ?
कब अपनी लुका-छीपी का खेल
तुम ही खत्म करोगे?
कब मैं तुम्हें तलाश पाऊंगा ?
कब खोलोगे तुम कृपालु
अपना दरवाजा ?............. अरविन्द
अनंत काल से
अनंत योनियों में
अनंत रूपों और
अनंत उमंगों से--
तुम्हें , तुम्हारे ही बनाए
रास्तों पर तलाश रहा हूँ।
अनंत आकाश के आच्छादन में
तुमने अपने रास्तों को
ऊँचे वृक्षों , रंग बिरंगे फूलों से सजाया है
तुम्हारी प्रकृति के
मायाचारी रंग मुझ अबोध को
बरबस लुभा लेते हैं , और
मैं विविधवर्णी रंगों में खो जाता हूँ।
तुम छिपे रहते हो,
तुम्हें ढूंढ़ नहीं पाता हूँ।
प्रेम करता हूँ प्रभु , तो
तुम बांसुरी बजाते हो।
अपनी थोथी जानकारियों के
ज्ञान को बघारता हूँ ,तो
तुम शंख बजाते हो।
उदास हो कर बैठ जाता हूँ , तो
आत्मीय बन कर्ण -कुहरों में
मधुर मदिर फुसफुसाते हो ।
थक हार कर सो जाता हूँ ,तो
स्वप्न में आ मुझे जगाते हो।
बेहद तंग गलियों में घुमाते हो ,
प्रभु ,समझ नहीं आता --
प्रत्येक रास्ते पर तुम्हारा
दरवाजा महसूसता तो हूँ ,पर
द्वार दिखता नहीं है।
तुम्हीं बताओ कब तुम्हारे द्वार के
अदृश्य पट खुलेंगे ?
कब मुझे मायाचारी प्रकृति के कुचक्र से
तुम मुक्त करोगे ?
कब अपनी लुका-छीपी का खेल
तुम ही खत्म करोगे?
कब मैं तुम्हें तलाश पाऊंगा ?
कब खोलोगे तुम कृपालु
अपना दरवाजा ?............. अरविन्द