मंगलवार, 9 दिसंबर 2014

कल मुझे समुद्र मिला था ।

कल मुझे समुद्र मिला था ।

बहुत उल्लास से
बहुत आनन्द से
आत्मीयता पूर्ण हृदय से
और कुछ अपरिचित से
झिझकते हुए
उसने मेरा दरवाजा खटखटाया।

बहुत दिनों बाद
मेरे द्वार पर दस्तक हुई थी
औचक से , कुछ अनमने भाव से
कुछ जिज्ञासा और कौतुहल से
मैने द्वार खोला।

खुलते ही जैसे
अनंत ने मुझे आच्छादित कर लिया हो
समुद्र ने मुझे बाहों में भर लिया ।
ऐसे की जैसे पिता ने
अबोध बालक को
आकाश में उछाल कर
फिर लपक लिया ।
सर्वत्र मेरी खिलखिलाहट का
स्वर ,मंदिर में आरती के समय
बजने वाली घंटियों की
मधुर ध्वनि से भर गया।

आज मेरे द्वार पर
समुद्र आया।

उसने कहा -
क्यों एक बूंद की तरह
सीमित हो कर
अपने होने को कलंकित कर रहे हो ?
बाहर आओ,और अपने जीने को
उन्मुक्त आकाश सा लहराने दो।
क्यों बंद दरवाजे में
घुटते हो ,अस्तित्व से जुडो और
मेरी तरह लहराओ।

अपने भीतर छिपे आनन्द के
अनंत को बुलाओ।
जगाओ।
खुद अनंत हो जाओ।

अब मैं ही समद्र हूँ
अपने आनन्द में लहराता हुआ
मैं ही अनंत हूँ
अपने होने में जगमगाता हुआ।
उमड़ घुमड़ कर
अपनी लहरों को नचाता हुआ ।

आज समुद्र आया था और
मुझे समुद्र कर
अपने संग ले गया ।...........अरविन्द

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