हम पुकारते हैं
रोज ,उसे अपनी प्रार्थनाओं में
हम रोज पुकारते हैं उसे
मन्त्रों की याचनाओं में .
पुकारते हैं हम जिसे
उसे
जानते नहीं होते।
न रूप से ,न रंग से
न गंध से , न शब्द
और न स्पर्श से ,
उसे पहचानते नहीं होते।
जिज्ञासा की तलहटियों में
नाचते प्रश्न --
ज्ञान की लालसाओं में
नाम देना चाहते हैं
उसे अपना समझना और
उसका होना चाहते हैं।
दृश्य के पीछे की
सत्ता उसे मानते हैं।
अस्तित्व के रचना का
नियंता उसे जानते हैं।
यही
हमारी आदिम इच्छा
जन्म दे जाती है --
झूठी मर्यादाओं को।
भक्ति की वीथियों और
मन्त्रों की प्रार्थनाओं को।
आदिम इच्छा की ही परिणति है --
हमारे तुम्हारे सब रूप नाम
राम ,घनश्याम
गोविन्द ,माधव
सर्वेश्वर विष्णु धाम।
आदिम इच्छा ने रच दिए
अनेक ग्रन्थ तथाकथित
सद्भावनाओं में महान।
हम ,पर जान नहीं पाये
उस अज्ञात की सम्भावनाओं को।
अनुभूति में विदयमान
अज्ञात जिज्ञासा की
परछाइयों को।
नहीं जान पाये अपने
स्व की ही विभावनाओं को।
एक है वह
मानकर भी
हमने दे दिया जन्म
अनेकताओं को।
बाँट दिया उसे
धर्म की धुंधताओं में
जगत की विपुल मूर्खताओं में ।
रंग रूप सब उसके न्यारे थे।
ज्ञानी सभी भेदभाव भरे हमारे थे।
इसीलिए हम हो नहीं सके उसके जो
वास्तव में हमारे थे।
पाखण्ड सारा ज्ञान रहा
पाखण्ड सारी साधना
पाखण्ड हमारा ध्यान रहा
पाखण्ड रही उपासना।
जो तत्व भीतर सिक्त है
हम रिक्त उससे रह गये।
पंथ प्रेम एक था --
हम बहु भेद -पंथ बह गये। …………… अरविन्द
रोज ,उसे अपनी प्रार्थनाओं में
हम रोज पुकारते हैं उसे
मन्त्रों की याचनाओं में .
पुकारते हैं हम जिसे
उसे
जानते नहीं होते।
न रूप से ,न रंग से
न गंध से , न शब्द
और न स्पर्श से ,
उसे पहचानते नहीं होते।
जिज्ञासा की तलहटियों में
नाचते प्रश्न --
ज्ञान की लालसाओं में
नाम देना चाहते हैं
उसे अपना समझना और
उसका होना चाहते हैं।
दृश्य के पीछे की
सत्ता उसे मानते हैं।
अस्तित्व के रचना का
नियंता उसे जानते हैं।
यही
हमारी आदिम इच्छा
जन्म दे जाती है --
झूठी मर्यादाओं को।
भक्ति की वीथियों और
मन्त्रों की प्रार्थनाओं को।
आदिम इच्छा की ही परिणति है --
हमारे तुम्हारे सब रूप नाम
राम ,घनश्याम
गोविन्द ,माधव
सर्वेश्वर विष्णु धाम।
आदिम इच्छा ने रच दिए
अनेक ग्रन्थ तथाकथित
सद्भावनाओं में महान।
हम ,पर जान नहीं पाये
उस अज्ञात की सम्भावनाओं को।
अनुभूति में विदयमान
अज्ञात जिज्ञासा की
परछाइयों को।
नहीं जान पाये अपने
स्व की ही विभावनाओं को।
एक है वह
मानकर भी
हमने दे दिया जन्म
अनेकताओं को।
बाँट दिया उसे
धर्म की धुंधताओं में
जगत की विपुल मूर्खताओं में ।
रंग रूप सब उसके न्यारे थे।
ज्ञानी सभी भेदभाव भरे हमारे थे।
इसीलिए हम हो नहीं सके उसके जो
वास्तव में हमारे थे।
पाखण्ड सारा ज्ञान रहा
पाखण्ड सारी साधना
पाखण्ड हमारा ध्यान रहा
पाखण्ड रही उपासना।
जो तत्व भीतर सिक्त है
हम रिक्त उससे रह गये।
पंथ प्रेम एक था --
हम बहु भेद -पंथ बह गये। …………… अरविन्द
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