मंगलवार, 9 दिसंबर 2014

मुद्दत बाद

मुद्दत बाद आज उसका गुलाबी खत आया है
माघ महीने में सूरज जैसे निकल आया है।

बहुत कह रहीं हैं वे मासूम आँखें चुपचाप
पहाड़ी पर जैसे अकेला वृक्ष लहलहाया है।

वह चुप नहीं रह सकती बहुत ही बतियाती है
मुसीबत का पिटारा प्रभु तुमने क्यों थमाया है।

सकूँ मिलता ही नहीं घर में और न जंगल में
सागर की लहरों सा शोर मन में समाया है।

वे पूछते रहते हैं मुझसे मेरे मौन का कारण
जिंदगी की व्यस्तताओं ने बहुत सताया है।

अर्थ ढूंढे थे जो हमने दुनिया में जीने के लिए
कोरे शब्दों के उजले जंजालों ने खूब भरमाया है ।

वह आता है चुपचाप और बांसुरी सुना जाता है
साँवला अपने सब रंगों में मुझे बहुत भाया है। …………अरविन्द

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें