चित्त मेरा अलसाना मितवा ,अब कुछ कहा न जाए।
देहरी परबत सम लागे है ,पग उठने नहीं पाये।
पलक खोलना चाहूं ,खुले न ,नयनां मूंदे हैं जाये।
मद छाया देह भयी भारी ,विषधर बिल माहिं समाये।
जरी गयी देह ,मन मौन हुआ अब सुख सागर नहलाये।
जब ते कृष्णा भीतर पैठा ,घर आँगन न सुहाय।
चित्त मेरा अलसाना मितवा ,काहे तू अधिक सताये। ………… अरविन्द
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