मंगलवार, 18 दिसंबर 2012

कहाँ से पुकारूँ ....प्रभु !


जी चाहता  है 

हृदय  की सबसे  ऊँची बुर्जी  पर 
खडे होकर तुम्हें 
आवाज  दूँ 
घाटियों में  छा  जाए 
तुम्हारे  नाम  की 
अनुगूँज ...
और मैं  देर  तक सुनता  रहूँ .

लेकिन  जब भी  मैने 
तुम्हें  हौले  से  पुकारा  है ...हे  मेरे  प्रभु !
आंधीयां उठी ... भावों  के  भयभीत  पंछी 
उड़  गए  हृदयाकाश  में  बेतरतीब .

तुम्हारा  नाम  प्रकृति  को झकझोर  जाता  है ... मेरे  आत्मीय .. मेरे  प्रभु !

कहो ! तुम्हें  कहाँ  से  पुकारूँ ....मेरे  प्रभु !?!

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