कागजों के ढ़ेर पर फिसल गयी जिन्दगी
यह जो फाइल सामने बहुत मोटी है -
मेरे अर्जित ज्ञान की यही पोथी है
इकट्ठे किए हैं जो भी प्रमाणपत्र
नौकरी के बाद हो गयी थोथी है।
बिता दिए साठ वर्ष इसे सँभालते
नष्ट किए सुखद क्षण इसे खंगालते
कागजों में सिमट गए संघर्ष जिन्दगी
ओहो !मिली हमें कैसी कागजी जिन्दगी ..
बीत गया वक्त सारा रस छानते
श्रृंगार की बीथिओं में बीभत्स बांटते
नायिका के भेद पर आनंद छांटते
कबीर संत तुलसी की गाँठ बांधते .
व्यर्थ लग रही यहाँ सारी पढाई है
सार्थकता मरीचिका है ,परछाई है .
जहाँ भी मैं रूका वहां मिली गंदगी
ओहो !यह कैसी कागजी जिन्दगी .
देख लिए बापू सारे ज्ञान बघारते
ऊँची ऊँची गद्दियाँ सजते संवारते .
माया के मंचों पर ठुमक नाचते
भीड़ में रंगदार भक्ति को बांटते
न कृष्ण देखा इन्होंने न राम देखा है
सब और नाचता बस काम देखा है
अहंकार के पुतले कर रहे बंदगी
ओहो !कैसी यह कागजी जिन्दगी .
फट गये पृष्ठ सारे जो प्रेम पगे थे
अपनी अपनी इच्छा के घुन लगे थे
स्वार्थों की दौड़ में हम सब पड़े थे
आत्मार्थ रक्षा के कुछ गुम्बद खड़े थे
सिद्धांती वहां लगता सिर्फ कसाई था
भाई की गर्दन पर भाई सवार था .
चुपचाप रोते देखी है जिन्दगी
वाह !कैसी मिली कागजी जिन्दगी .
अब नाहीं बचा कुछ राम राम कर
सत्य के द्वार पर ठगा हुआ मर
भ्रम में जिया अब भ्रम त्याग दे
नाते बंधु सगे व्यर्थ, सब त्याग दे
एक ही तत्व तेरे भीतर जागता
उसकी बात सुन क्यों है कांपता
अर्थ तेरे आगे खोल रही जिन्दगी
कागजों के ढेर से निकल रही जिन्दगी .......अरविन्द
यह जो फाइल सामने बहुत मोटी है -
मेरे अर्जित ज्ञान की यही पोथी है
इकट्ठे किए हैं जो भी प्रमाणपत्र
नौकरी के बाद हो गयी थोथी है।
बिता दिए साठ वर्ष इसे सँभालते
नष्ट किए सुखद क्षण इसे खंगालते
कागजों में सिमट गए संघर्ष जिन्दगी
ओहो !मिली हमें कैसी कागजी जिन्दगी ..
बीत गया वक्त सारा रस छानते
श्रृंगार की बीथिओं में बीभत्स बांटते
नायिका के भेद पर आनंद छांटते
कबीर संत तुलसी की गाँठ बांधते .
व्यर्थ लग रही यहाँ सारी पढाई है
सार्थकता मरीचिका है ,परछाई है .
जहाँ भी मैं रूका वहां मिली गंदगी
ओहो !यह कैसी कागजी जिन्दगी .
देख लिए बापू सारे ज्ञान बघारते
ऊँची ऊँची गद्दियाँ सजते संवारते .
माया के मंचों पर ठुमक नाचते
भीड़ में रंगदार भक्ति को बांटते
न कृष्ण देखा इन्होंने न राम देखा है
सब और नाचता बस काम देखा है
अहंकार के पुतले कर रहे बंदगी
ओहो !कैसी यह कागजी जिन्दगी .
फट गये पृष्ठ सारे जो प्रेम पगे थे
अपनी अपनी इच्छा के घुन लगे थे
स्वार्थों की दौड़ में हम सब पड़े थे
आत्मार्थ रक्षा के कुछ गुम्बद खड़े थे
सिद्धांती वहां लगता सिर्फ कसाई था
भाई की गर्दन पर भाई सवार था .
चुपचाप रोते देखी है जिन्दगी
वाह !कैसी मिली कागजी जिन्दगी .
अब नाहीं बचा कुछ राम राम कर
सत्य के द्वार पर ठगा हुआ मर
भ्रम में जिया अब भ्रम त्याग दे
नाते बंधु सगे व्यर्थ, सब त्याग दे
एक ही तत्व तेरे भीतर जागता
उसकी बात सुन क्यों है कांपता
अर्थ तेरे आगे खोल रही जिन्दगी
कागजों के ढेर से निकल रही जिन्दगी .......अरविन्द
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