मंगलवार, 7 मई 2013

सब का सच

बच्चे थे , तब अच्छे थे .
खाते पीते हँसते थे 
खेल खेलते रोते थे 
धमा चौकड़ी करते थे .
सब को प्यारे लगते थे .
बच्चे थे , तब अच्छे थे .
विदयालय जब जाते थे 
गला फाड़ तब रोते थे .
टीचर गले लगाती थी 
बड़ी प्यारी लगाती थी .
उछल कूद ही जीवन था 
माँ ही एक खिलौना था .
चूमा चाटी करते थे 
सब को न्यारे लगते थे .
बच्चे थे , तब अच्छे थे .
बारिश हमें भिगोती थी 
छप छप हमें नहाती थी .
हम कपड़े गंदे करते थे 
दो -चार चांटे पड़ते थे .
नित नयी शरारत आती थी 
हमें भरपूर नचाती थी .
कुछ झिडके भी हम खाते थे 
कुछ मार कुटायी होती थी .
रो -धोकर चुप हो रहते थे 
बच्चे थे ,तब अच्छे थे .
अब हम बूढ़े हो रहे हैं 
गधे भार को ढ़ो रहे हैं .
चिंता की गठरी लादे 
जीवन का रस खो रहे हैं .
आशंकाओं के मकड़ जाल में 
मृग तृष्णा को बो रहे हैं .
खुशियाँ हुई तितिलियाँ हैं 
उठती हैं, ललचाती हैं 
हाथ नहीं आ पाती हैं .
चैन नहीं मिल पाता है 
बचपन याद ही आता है 
बीत गए दिन सुख के वे 
बच्चे थे , तब अच्छे थे .

बड़े हुए अहँकार जगा 
नया एक बुखार चढ़ा .
नयी अलामत जाग गयी 
ईर्ष्या द्वेष की आग लगी .
चुगलखोरी ही भाती थी 
निन्दा अमृत लाती थी .
पाखण्ड सिरों पर नाच गया 
सुख शान्ति को दाह लगा .
सब मैं मैं मैं मैं करते थे 
दूजे का भाग हड़पते थे .
लालच की लाठी लेकर 
कथा झूठ की रचते थे .
बच्चे थे , तब अच्छे थे .

अब वृद्धावस्था आ गयी है 
रोग कई जगा  गयी है .
नित दवाइयां खाते हैं 
और घिसटते जाते हैं .
दम -ख़म सारा लुप्त हुआ 
चेतन तत्व विलुप्त हुआ .
क्या खोते और क्या पाते हैं 
अभी भी सोच न पाते हैं .
कर्म विपाक का फल बैठा 
अपने आप को छल बैठा .
आत्म ग्लानि भाव जगे 
बच्चे थे , तब अच्छे थे ............अरविन्द 
 


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