शनिवार, 23 मार्च 2013

फिर उलझ गया है

यज्ञोपवीत फिर उलझ गया है .
तेरे प्यारे बुंदों में
तेरे पायल के घुंघरू में .
तेरे गलहार के कुंडों में
तेरी टिकया के झूमर में
किंकिणी में है उलझ गया .

कहाँ कहाँ सुलझाओं इसको
तीनों तारों की उलझन को .
उलझ गया फिर उलझ गया .
मेखला  उलझी गुन्झलिका में
तेरे माथे की लड़ियो में
गांठें इसकी उलझ गयीं हैं
सतलड़िये की इन धारों में  .
ब्रह्म ग्रंथि में रूद्र ग्रंथि
विष्णु ग्रंथि भी उलझ गयी
पिघले वपु की लहरों पार  .
उलझ गए हैं गात हमारे
उलझ गए सांसों के हार
नहीं सुलझी हैं गलबहिया
नहीं सुलझता है अधर प्यार .
मेरी छाती पर आ चमकी
तेरी बिंदिया की चमकार .
कहो ,कहाँ सुलझाऊ सब कुछ
तुमने वपु वस्त्र लिए संभार .
रजनी देखो खिसक रही है
ऊषा आ बैठी है  द्वार .
कैसे सुलझाऊ मैं ,बोलो
यज्ञोपवीत के उलझे तार ?......अरविन्द

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