अद्वय -गान
रस राज दिया ,श्रृंगार दिया .
तुमको अद्भुत यह साज दिया .
छेड़ो प्रिय के पिय तार पिया .
मदमाती मौन गुंजार पिया .
यह देह बड़ी मतवाली है .
सुमनों भरी इक डाली है .
सुरभि और सदानन्द यहाँ
मन मधुकर- मकरन्द यहाँ .
आत्मरति भी रति कहाँ ?
द्वैतासक्ति नहीं वहाँ
अनुरागी मिथुनासक्ति है .
अनुरक्ति चित की भक्ति है .
वैरागी मन तो पागल था
स्वनिर्मित सृष्टि साहिल था .
मूढ़ अहं चित्त चेरा था .
उसने न प्रभु को हेरा था .
रूप रूप में अपरूप छिपा .
प्रकाशित हुई आत्म विभा .
अन्धकार स्वयं का निर्मित .
गेह सिकता का था, खिसका .
अब पहचानी गात --शिखा .
रूपासक्ति की ज्वलित प्रभा .
अद्भुत गोपिका भाव जगा .
ललिता सा सौभाग्य पगा .
गुरु कृष्ण अब जाग गया .
मन वृन्दावन श्रृंगार सजा .
नित बाँसुरी राग बजता है
नित राधा --राधा करता है .
रसबेनी लहरती है आगे
पग पायल बजती है आगे .
नित कंकण -राग सजता है .
प्रियतम संयोग ही पगता है
कालिंदी बहती तरल तरल .
भव मयूर नाचता विरल विरल .
रास सरसती है प्रतिपल
खिलते कोमल भाव प्रबल .
अब रात प्यारी लगती है .
मधुवात प्यारी लगती है
एकांत प्यारा लगता है
सु कान्त प्यारा लगता है .
नदी कूल प्यारा लगता है
वट मूल प्यारा लगता है .
भुजलता प्यारी लगती है .
नित रास प्यारी लगती है
पदचाप प्यारी लगती है .
मधुछाप प्यारी लगती है .
कोई बोल नहीं सुहाता है .
निशब्द गीत ही भाता है .
जितना उतरता गहरे हूँ -
मन उतना ऊपर जाता है .
क्यों कहूँ कि जग इक माया है
क्यों कहूँ कि भ्रम और छाया है .
सत्य निकट अब आया है .
जग फंद सभी छुड़ाया है .
हिरण्यगर्भ ही अब प्रकट हुआ .
बिसमाद हमारा प्रकट हुआ .
अद्वय का सुख अब भाया है .
कृष्णा ! तू अब आया है ..........अरविन्द
.
रस राज दिया ,श्रृंगार दिया .
तुमको अद्भुत यह साज दिया .
छेड़ो प्रिय के पिय तार पिया .
मदमाती मौन गुंजार पिया .
यह देह बड़ी मतवाली है .
सुमनों भरी इक डाली है .
सुरभि और सदानन्द यहाँ
मन मधुकर- मकरन्द यहाँ .
आत्मरति भी रति कहाँ ?
द्वैतासक्ति नहीं वहाँ
अनुरागी मिथुनासक्ति है .
अनुरक्ति चित की भक्ति है .
वैरागी मन तो पागल था
स्वनिर्मित सृष्टि साहिल था .
मूढ़ अहं चित्त चेरा था .
उसने न प्रभु को हेरा था .
रूप रूप में अपरूप छिपा .
प्रकाशित हुई आत्म विभा .
अन्धकार स्वयं का निर्मित .
गेह सिकता का था, खिसका .
अब पहचानी गात --शिखा .
रूपासक्ति की ज्वलित प्रभा .
अद्भुत गोपिका भाव जगा .
ललिता सा सौभाग्य पगा .
गुरु कृष्ण अब जाग गया .
मन वृन्दावन श्रृंगार सजा .
नित बाँसुरी राग बजता है
नित राधा --राधा करता है .
रसबेनी लहरती है आगे
पग पायल बजती है आगे .
नित कंकण -राग सजता है .
प्रियतम संयोग ही पगता है
कालिंदी बहती तरल तरल .
भव मयूर नाचता विरल विरल .
रास सरसती है प्रतिपल
खिलते कोमल भाव प्रबल .
अब रात प्यारी लगती है .
मधुवात प्यारी लगती है
एकांत प्यारा लगता है
सु कान्त प्यारा लगता है .
नदी कूल प्यारा लगता है
वट मूल प्यारा लगता है .
भुजलता प्यारी लगती है .
नित रास प्यारी लगती है
पदचाप प्यारी लगती है .
मधुछाप प्यारी लगती है .
कोई बोल नहीं सुहाता है .
निशब्द गीत ही भाता है .
जितना उतरता गहरे हूँ -
मन उतना ऊपर जाता है .
क्यों कहूँ कि जग इक माया है
क्यों कहूँ कि भ्रम और छाया है .
सत्य निकट अब आया है .
जग फंद सभी छुड़ाया है .
हिरण्यगर्भ ही अब प्रकट हुआ .
बिसमाद हमारा प्रकट हुआ .
अद्वय का सुख अब भाया है .
कृष्णा ! तू अब आया है ..........अरविन्द
.
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