गुरुवार, 28 मार्च 2013

अद्वय -गान

         अद्वय -गान
रस राज दिया ,श्रृंगार दिया .
तुमको अद्भुत यह साज दिया .
छेड़ो प्रिय के पिय तार पिया .
मदमाती मौन गुंजार पिया .

यह देह बड़ी  मतवाली  है .
सुमनों  भरी  इक डाली  है .
सुरभि और सदानन्द यहाँ
मन मधुकर- मकरन्द यहाँ .
आत्मरति भी रति कहाँ  ?
द्वैतासक्ति  नहीं  वहाँ
अनुरागी मिथुनासक्ति है .
अनुरक्ति चित की भक्ति है .

वैरागी मन तो पागल  था
स्वनिर्मित सृष्टि साहिल था .
मूढ़ अहं चित्त  चेरा था .
उसने न प्रभु को हेरा था .

रूप रूप में अपरूप छिपा .
प्रकाशित हुई आत्म विभा .
अन्धकार स्वयं का निर्मित .
गेह सिकता का था, खिसका .
अब पहचानी गात --शिखा .
रूपासक्ति की  ज्वलित प्रभा .

अद्भुत  गोपिका भाव जगा .
ललिता सा सौभाग्य पगा .
गुरु कृष्ण अब जाग गया .
मन वृन्दावन श्रृंगार सजा .
नित बाँसुरी राग बजता है
नित राधा --राधा करता है .

रसबेनी लहरती है आगे
पग पायल बजती है आगे .
नित कंकण -राग सजता है .
प्रियतम संयोग ही पगता है

कालिंदी बहती तरल तरल  .
भव मयूर नाचता विरल विरल .
रास सरसती  है  प्रतिपल
खिलते कोमल भाव प्रबल .

अब रात प्यारी लगती है .
मधुवात प्यारी लगती है
एकांत प्यारा लगता है
सु कान्त प्यारा लगता है .
नदी कूल प्यारा लगता है
वट मूल प्यारा लगता है .
भुजलता प्यारी लगती है .
नित रास प्यारी लगती है
पदचाप प्यारी लगती है .
मधुछाप प्यारी लगती है .

कोई बोल नहीं सुहाता है .
निशब्द गीत ही भाता है .
जितना उतरता गहरे हूँ -
मन उतना ऊपर जाता है .

क्यों कहूँ कि जग इक माया है
क्यों कहूँ कि भ्रम और छाया है .
सत्य निकट अब आया है .
जग फंद सभी छुड़ाया है .
हिरण्यगर्भ ही अब प्रकट हुआ .
बिसमाद हमारा प्रकट हुआ .
अद्वय का सुख अब भाया है .
कृष्णा ! तू अब आया है ..........अरविन्द






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