प्रभु ! कैसी यह सृष्टि रची .
रंग बिरंगे जीव रचे और भेजे जगत में सारे .
हिस्र और अहिंस्र जीव सब एक ही वृति सहारे .
बुद्धि तुमने ऐसी दीनी नित भेद भाव में रहती .
अपनी मैं को ही समझे यह न दूजे संग राती .
दूजा तो बना निवाला सब इक दूजे को खाबें।
कर्म निहकर्मी कोई न करते ,रोवें और रुलावें .
सब कहते तुम करुणाकर ,तुम हो दीनदयाला .
तुम कृपा के सागर पूरे ,तुम प्रेमी तू जगपाला .
ईर्ष्या द्वेष मारण शोषण रची रचना पाखंडी .
कारण क्या, कहो प्रभु तुम रचे अहंकार प्रचंडी
दुःख दरिद्रता भूख लाचारी अज्ञान भरी सारी .
तड़पत देख रहे हो प्रभु हम तुम पर बलिहारी ......अरविन्द
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