बुधवार, 6 मार्च 2013

अपना अपना ढूंढते खोया अपना आप
अपने इस संसार में अपना नहीं है बाप .

रिश्ते सारे बिगड़ गए कैसा यह अभिशाप
प्रेम बंधन सब खो गये कुटिल हो गया साथ .

बादल बरसा समुद पर  तरसा रेगिस्तान
जहाँ जहाँ कुछ चाह है वहां वहां परेशान .

कैसी लीला प्रभु की कैसी संसार सौगात
गृहस्थी तो कंगला सन्यासी महल आवास .

साठ साल के हो गये उतरा नहीं  बुखार
 हमने तो इकट्ठा किया, लालच का परिवार  .
पढ़े पढ़ाये बहुत हैं तो भी समझ न पाए
अहंकार के पुतलों को ,स्वार्थ ही सुहाए

जान समझ कर लाये थे तो भी जान न पाए
जान जान कर जान को जान नहीं सुहाए ....अरविन्द 

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