सोमवार, 10 फ़रवरी 2014

अरे !

अरे ! देख लिया होगा
अब तक तुमने --
मुंडेर पर बैठा चाँद ?
रजनीगंधा की क्यारी के पास
भटकते तारे भी --
 देख लिए होंगे अब तक ?
सारी रात बाग़ में ही गुजार दोगी  क्या ?
अब तो पौ फट गयी है।
सुबह चिड़ियों का
चहचहाना भी सुन लिया होगा ?
मधुमक्खी के गुनगुनाते सन्देश को भी
बाँध लिया होगा
अपनी गुलाबी चुनरी के कोने में ?
क्या बादलों के बदलते रंग ने
नहीं बताया कि कोई
भीतर सारी रात ध्रुव तारे सा
 जागता रहा है ?
कब तक तुम्हारा
प्रकृति - प्रेम
हमारे प्राकृतिक प्रेम को
ओस की बूंदों सा लुढ़काता रहेगा ?
कब तक एक लोरी की प्यारी
छाँह के लिए
यह भोला मन
रात  भर जगता ,ललचाता रहेगा ?.......... अरविन्द



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