बुधवार, 5 फ़रवरी 2014

आओ सम्भाले हम !

आओ सम्भाले हम !
खिली हुई केतकी ,
महकती चम्पा ,
लहराता गुलाब
और मुस्कुराता हुआ पीपल
हम संभालें।
मुन्ने की कटोरी में
झांकता चाँद ,
चाँद के भीतर बैठा
खरगोश ,
मुंडेर पर का ,खा ,गा
पढ़ते कौए।
कभी कभी जंगल से आती
कोयल की मधुर कूक
पुकारती हो जैसे प्यासी पिया
कंठ पर रख लेती हो ,जैसे हिया।
आओ ! इसे संभालें।
हम क्यों सहेजें वे दर्द
जो दुनिया ने हमें दिए ?
हम नहीं संभालेंगे वे जख्म
जो अपनों ने मुहं -अँधेरे हमें दिए।
हम छोड़ आये हैं वह नगर
जहाँ ईर्ष्या और द्वेष के जल रहे थे
मन में दीये।
हम संभालेंगे गंगा की लहरों की
चंचल शीतलता
हम संभालेंगे ऊँचे पर्वतों का
धैर्य ,कवच सी कठोरता ,
हम सभालेंगे सूर्य का तेजस
विभा की सौम्यता।
जीवन अभी है शेष और
न यात्रा ही पूर्ण हुई।
तो क्यों सहेजे हम
दुःख ,दर्द और जख्म की गाथा
जो बीत गयी।
न झुका पौरुष कभी
न ही झुक सकता है पुरुष
चेतना में बलवती
आभा प्रभु की।
नहीं हो सकती कभी
कलंकमयी।
सहेजने को मिला है प्यार ,
करुणा ,क्षमा ,प्रगल्भता
तर्कातीत अन्वेषण तथता का
सुंदर आत्म चेतना।
आओ ! सहेजें सर्वांश
विभु संकल्प ,
निर्भ्रांत देशना। ............. अरविन्द ]


 

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