आज मैं कुछ यूँ लिखूं
भावना की भीड़ में
मित्र शत्रु क्यों पख़ूं ?
लहर थी निकल गयी
अब लकीर क्यों पिटूं ?
आज मैं कुछ यूँ लिखूं।
संसार जगता स्वप्न है
मन संकल्प रत्न है --
अनुभूतियों के जंगल में
मनुष्य अविरत यत्न है।
कटु मधु सब प्रपंच है
क्यों न सुख की बात कहूं ?
आज मैं कुछ यूँ लिखूं।
अपनी अपनी चेतना है
अपनी अपनी देशना है
किसी को वेदना प्रिय
किसी को सुख लेखना है।
सुख दुःख के पालने में
सिक्त व्यक्ति प्रेरणा है।
क्यों न अनुरक्त हो रहूँ ?
आज मैं कुछ यूँ लिखूं।
मित्र सारे मुस्कुराये
विपरीत नहीं सकपकाये ।
लहलहाते आननों ने
प्रीत के कुछ गीत गाये ।
स्वयं को ही परख लिया
क्यों न अब स्व को गहूं ?
आज मैं कुछ यूँ लिखूं।
कर्म कुदरत ने दिया
नृत्य खुद ही कर लिया
स्वयं को कर्ता समझ
मिथ्या भ्रम को रच लिया
ज्ञान तो अब है मिला
छोड़ दूँ अब मैं ,न अटकूं।
आज मैं कुछ यूँ लिखूं।
जो मिला अद्भुत मिला
शेष नहीं कोई गिला
असत सत सत्य खिला
कर्म नहीं शेष रहा
अकर्ता बन निमित्त बनूँ
आज मैं कुछ यूँ लिखूं।
धन्य धन्य भाग है
धन्य सब अनुराग है
धन्य मेरे रूप सारे
अब धन्य ही सौभाग है।
धन्यता के आलोक में
भगवत्ता को चहुँ।
आज मैं कुछ यूँ लिखूं। ………… अरविन्द
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