प्रभु ।
दुर्विनीत दुर्वासनाओं का
अहंकार पूरित कामनाओं का
मन की चिरसंचित एषनाओं का
उद्दंड समुद्र मुझ में लहराता है।
विषैले सांप के समान
सिर उठा लेता हूँ
जब भी कोई आकर
अयाचित
पुकारता है।
कैसा मैं दिया है , जो
बेगाने साम्राज्य में
स्वयं को ही सम्राट मान
बेवजह इतराता है ?
तुम्हारी कृपा अद्भुत है
मेरी दुर्विनीत वासनाओं को
असीम कामनाओं को
तुम कठोर पिता से
नकार देते हो,
अदृश्य होते हुए भी
तुम मेरी बाहं पकड़ उठा लेते हो,
सांसारिक दलदल में गिरने से
बचा लेते हो।
दीखते नहीं पर
होने के आभास से
मुझे चमका देते हो, हैरान कर देते हो।
इतना ही प्रेम है, तो
यह भी बता दो प्रभु
क्यों इन एषनाओं की
विभीषिका में धकिया देते हो ?
तुम्हारे इस प्रेम के कारण ही
स्वतन्त्र और स्वछन्द होकर भी
मैं सीमा नहीं तोड़ पाटा हूँ।
तुम्हें जानता हूँ ,चाहता हूँ और
तुम पर इतराता हूँ।
तुम्हारे भरोसे ही
इस सागर में खूब
धमाचौकड़ी मचाता हूँ।........अरविन्द
दुर्विनीत दुर्वासनाओं का
अहंकार पूरित कामनाओं का
मन की चिरसंचित एषनाओं का
उद्दंड समुद्र मुझ में लहराता है।
विषैले सांप के समान
सिर उठा लेता हूँ
जब भी कोई आकर
अयाचित
पुकारता है।
कैसा मैं दिया है , जो
बेगाने साम्राज्य में
स्वयं को ही सम्राट मान
बेवजह इतराता है ?
तुम्हारी कृपा अद्भुत है
मेरी दुर्विनीत वासनाओं को
असीम कामनाओं को
तुम कठोर पिता से
नकार देते हो,
अदृश्य होते हुए भी
तुम मेरी बाहं पकड़ उठा लेते हो,
सांसारिक दलदल में गिरने से
बचा लेते हो।
दीखते नहीं पर
होने के आभास से
मुझे चमका देते हो, हैरान कर देते हो।
इतना ही प्रेम है, तो
यह भी बता दो प्रभु
क्यों इन एषनाओं की
विभीषिका में धकिया देते हो ?
तुम्हारे इस प्रेम के कारण ही
स्वतन्त्र और स्वछन्द होकर भी
मैं सीमा नहीं तोड़ पाटा हूँ।
तुम्हें जानता हूँ ,चाहता हूँ और
तुम पर इतराता हूँ।
तुम्हारे भरोसे ही
इस सागर में खूब
धमाचौकड़ी मचाता हूँ।........अरविन्द
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