अब तो दरवाजा खोलो !
अनंत काल से
अनंत योनियों में
अनंत रूपों और
अनंत उमंगों से--
तुम्हें , तुम्हारे ही बनाए
रास्तों पर तलाश रहा हूँ।
अनंत आकाश के आच्छादन में
तुमने अपने रास्तों को
ऊँचे वृक्षों , रंग बिरंगे फूलों से सजाया है
तुम्हारी प्रकृति के
मायाचारी रंग मुझ अबोध को
बरबस लुभा लेते हैं , और
मैं विविधवर्णी रंगों में खो जाता हूँ।
तुम छिपे रहते हो,
तुम्हें ढूंढ़ नहीं पाता हूँ।
तुम्हीं बताओ कब तुम्हारे द्वार के
अदृश्य पट खुलेंगे ?
कब मुझे मायाचारी प्रकृति के कुचक्र से
तुम मुक्त करोगे ?
कब अपनी लुका-छीपी का खेल
तुम ही खत्म करोगे?
कब मैं तुम्हें तलाश पाऊंगा ?
कब खोलोगे तुम कृपालु
अपना दरवाजा ?............. अरविन्द
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