शुक्रवार, 3 अक्टूबर 2014

आओ ! बन्धु !!

आओ ! बन्धु !!
बार्ध्यक्य को उत्सव बनाएं।
नाती, पोते ,पोतियों संग खेलें
क्यों मुहं बिचकाए ?

अकेले होना , असंगी होना
बुरा नहीं ।

बुरा है अकारण
मुहं ढक कर सोने का
बहाना ।

बुरा है बेमतलब
उदास होना।
बुरा है मार खाई ततैया जैसे
झुंझलाना, पंख फडफडाना।
बुरा है शब्दों को
नीरस बनाना,
उन्हें कडवाहट में डुबोना।

बुरा है बार बार
रक्तचाप भांपना ।
हकीमों के यहाँ चक्कर लगाना।
सहानुभूति बटोरना।
दोष ढूंढना और
बहू-बेटियों पर
खीझ उतारना बुरा है।

बुढापा तो सौगात है
सौभाग्य का प्रभात है
अनुभवों के आनन्द की
धीमी बरसात है
मूर्खताओं को देख
मुस्कुराने की बात है।

निकालो अपने ही बनाए
खोल से बाहर निकलो ।
कुदरत की उठान को देखें
बाहर आये।

गजगामिनी , मधु भामिनी के
स्वनिर्मित सौन्दर्य
प्रकोष्ठ में जाएँ।
बीत गये यौवन की
मधुस्मृति में खो जाएँ।

कुसुमायुध के धनुष को
आवाहन की टंकार सुनाएँ।
सोये हुए शक्तिपुंज को
ललकारें,
झिंझोड़ कर जगाएं।
अपने वार्ध्यक्य का उत्सव मनाएं।

देह अशक्त है, हो।
मन की आसक्ति को बुलाएं।
जीवन का मूल
जिजीविषा है, उसे उदास हो
क्यों भगाएं ?

अंततोगत्वा तो जाना है
फिर अभी से क्यों
यम से संवाद को अकुलायें?
खाली बैठने की कला को
फिर से अपनाएं।
बीत गया संघर्ष सारा
अब नाचे गाएं, उल्लसित
उत्सव मनाएं।.
आओ !बन्धु !!
जीवन राग गुनगुनाएं ।...अरविन्द

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें