रविवार, 12 अक्टूबर 2014

तुमने तो कहा था

तुमने तो कहा था
मेरा हाथ पकड़ो ,आओ
तुम्हें अपनी बनायी सृष्टि में
घुमा कर लाता हूँ।

यहां कहाँ मौन बैठे तुम
अपने ही आत्म से
अकेले ही खेल रहे हो।

अशब्द शब्दों में रचे
मेरे संगीत को
सुनते हो ,विभोर हो रहे हो।

अद्वैत के आत्म -लोडित
स्व -विमोहित अंतर्लीन
निर्विकल्पिक शांत के
एकांतिक समाधि सुख को
अंतिम मान
स्वयं में ही आलोड़ित हो रहे हो।

तुमने ही कहा था --
द्वैत का सुख जानो।
पूर्णता के बिंदु से निकल
पूर्णता को पहचानो।
अपूर्णता की पगडण्डी के चारों ओर
उत्कीर्णित रचना में
कर्ता को जानो।

यहां अद्वै है।
तुम में मैं हूँ
मुझ में तुम लय है।
अभेदता के सागर में
आत्म -आलोड़न के अतिरिक्त
क्या है ?

बस !
मौन है ,स्तब्ध आनन्द का
निरीन्द्रिय प्रवाह है।
विकीर्णित पंच भूतों का
निरर्थक डाह है।
विसर्जित अहं की उत्सर्जित
आह है।

चलो ! आओ !
मेरा हाथ पकड़ो
मैं तुम्हें द्वैत दिखाता हूँ।
अहंकार के विविध वर्णी
गीत सुनाता हूँ।
पाँचों तत्वों के मिश्रण से
नए पुतले बनाता हूँ।
नहीं को हैं में परिवर्तित कर
चंचल मन को सजाता हूँ।
पुतले में कर्ता होने का भ्रम टिकाता हूँ।
मेरी प्रकृति में
वासना भण्डार है ,
उसमें ईर्ष्या ,द्वेष ,अज्ञान
पाखंड , भ्रम का ब्रह्म बिठाता हूँ।

चले आओ !
तुम्हें रचना के रस को
समझाता हूँ।

मैं तुम्हारी मदु मुस्कान
मदिर शब्दावली
उन्मुक्त उल्लास
स्नेहिल स्पर्श
प्रेमिल आत्मीयता
अविश्रांत विश्वास
अनन्य अनन्यता के
भुलावे में आ गया ।

तुमने रचना की माया में
मुझे विमोहित देख चुपके से
हाथ छुड़ा लिया ,
स्वयं को छिपा लिया।

अब तुम्हारी यह रचना
नीरस विरस है ,
और मेरी
आतुर पुकार है।

हे निर्दयी ! तुम कहाँ हो ?…………… अरविन्द

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