रविवार, 12 अक्टूबर 2014

अरविन्द क्षणिकाएँ

छत पर मेरे चाँद को देख चाँद शरमा गया
कौन है यह दूसरा जो मेरी जगह आ गया ।

झाँक रहा है चाँद चुपके से मेरी खिड़की में
मुस्कुरा रहा हूँ मैं अपने घर में चाँद रख के ।

चाँदनी लहराते हुए मेरी सीढियां उतर आई
साल बाद मन का भीगा आँगन मुस्काया है ।

पाजेब कंकण चूड़ियां करघनी छन छन छनकती
साल बाद उतरता है सीढियां संगीत मेरे घर की ।

कहने को तो बहुत कुछ है जो कह सकता हूँ
यह मेरा संकोच शर्म ही है जो कहने नहीं देती

भला हो डाक्टरों का जो दाँत नए लगा दिए
चिलगोजा बजाते थे हवा ही सरक जाती थी ।

कभी तो हमारे दर्द को पहचाना करो जालिम
साथ रहते सुइयां चुभोना अच्छी आदत नहीं।

मैं समुद्र की तरह तुम्हें अपने में समेट लूँगा।
नदी की तरह लहराते हुए तुम आओ तो सही।

नियति है संघर्ष तो कूद जा अकेले ही
भाग्य होगा तो हनुमान मिल ही जायेंगे।
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मत कर भरोसा किसी दूसरे की बाँह का
पहचान नहीं पाओगे आस्तीन कहाँ सांप कहाँ है।

कहाँ जाएँ किसे सुनाए हम दुखड़ाअपना
जिसे भी छूते हैं भरा फोड़ा ही मिलता है।

आदमी कुछ , कुछ कठपुतलियों से हैं
धागे कहीं ओर और नाच कहीं ओर हैं ।

बुराइयां भी पाल रखीं हैं अपने पींजरे में।
कबूतरों को भीतर रखो बाहर बाज बैठे हैं ।

जी चाहता है उतार दूँ कुछ चेहरों से नकाब।
रुक जाता हूँ सोच कर ये भी तो अपने ही हैं ।

उसने तो भेजा था तुम्हें पूरा आदमी बना कर ।
किसने तुम्हें हिन्दू, किसने मुसलमान बना दिया।....अरविन्द

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