गुरुवार, 4 सितंबर 2014

जख्म देने से पहले

अपने दर्द को मुस्कान में छिपा लेते हैं हम।
बेगानों को घर का गर्भ गृह दिखाया नहीं करते।
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नयन मूंद कर उतर जा ,गहरे मन में झांक ।
वहां विराजे ब्रह्म वह ,आँक स्वयं को जांच।।

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नाच नचाता मन हमें ,दूसर का नहीं दोष।
भीतर दबी लालसा, भरा हुआ असंतोष ।।
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भोर तो होगी ही हर रात की
कौन जाने कौन जागते मिलेंगे।
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तुम्हारे घर के सामने बैठ कर पीयूंगा शराब ऐ खुदा
तुम्हें भी पता चले कि तेरी दुनिया कितनी ख़राब है ।
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खुदा के घर के सामने बैठ पीयूंगा शराब।
सुना है बिगड़ों को पहले संभालता है वह।
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शराब न होती, बड़ा मुश्किल होता जीना
उसने मुश्किलें दीं ,शराब ने आसां कर दिया।
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तेरी मस्जिद के बाहर बैठ नित शराब पीता हूँ
तू मुझे बना कर भूल गया ,मैं तुम्हें पीकर भूलता हूँ ।
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तूफ़ान सह कर जब निकलता है आदमी।
बदल जाती है रंगों- सूरत और सीरत भी ।
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सिर के बाल कभी के उड़ा दिए थे बच्चों ने
पोते ,पोतियां ,दोहते अब तबला बजा रहे हैं।
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प्यार की माला जपने वाले हजारों
देह के किनारे पर डूबे हमें मिले हैं।
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जख्म देने से पहले जो सोचा होता
दर्द भी आदमी को गूंगा बना देता है।
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ग़ालिब ,मीर ,जफ़र इकवाल गए जहाँ से
ख्याल अभी भी दुनिया में कम नहीं हुए हैं। ………अरविन्द

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