शुक्रवार, 26 सितंबर 2014

नहीं प्रभु !


नहीं प्रभु !
सब छोड़ सकता हूँ।
 
यह काम , यह क्रोध
यह लोभ ,यह मोह।
सब छोड़ सकता हूँ।
ये सब
अंधी  बंद गली में फंसे
बच्चे की आतुर चीख है।
किसी असहाय हो चुके
बलवान की
उच्छिष्ट भीख है।
ये सब -
लिजलिजे पश्चाताप के
हेतु हैं।
रेतस् के ऊर्ध्वगमन के
अवरोधक हैं।
मृगतृष्णा की फाँस  और
मृत्यु के बोधक हैं।
सुख के शोधक नहीं ,
आनन्द  के शोषक हैं।
ये सब छोड़ सकता हूँ।
छोड़ सकता हूँ --
इन पाँचों तत्वों के संघठन को।
विसर्जित कर सकता हूँ
पृथ्वी को पृथ्वी में .
 
उंडेल सकता हूँ जल को
जल में।
प्रवाहित कर सकता हूँ
दसों प्राणों को
दिशहीन बहती
हवाओं में।
सहस्रांशु की किरणों में
समर्पित की जा सकती है
अपनी तेजोमयी
तेजस्विता।
बिना किसी राग के।
अनंत ब्रह्माण्ड के शब्द में
लय  कर सकता हूँ
अपने आंतरिक और
बहिर्गत शब्द  के
नाद को , निनाद को
निःसंकोच।
पर नहीं छोड़ सकता प्रभु
अपने अहं को।
यह अहं ही है कि
मैं मैं हूँ और तुम तुम।
यह अहं ही है कि
तुम्हें पाने को
फलांग जाता हूँ गहरी
अगम्य मन की खाइयों को।
अहं ही है जो मुझे
वासना के उत्तुंग
हिमालय से कूदने का
साहस देता है।
अहं के कारण ही प्रभु
न मैं मरता हूँ  और न तुम।
हम दोनों की चिरजीविता है
यह अहं।
क्यों  छोड़ूँ इसे ?
इसी के कारण तो
मेरे होने का उद्देश्य ,
तुम्हारे होने का प्रयोजन
सिध्द होता है।
इसे बना रहने दो नाथ
झीना आवरण है।
हम दोनों के
आनन के शाश्वत
सौंदर्य का।
उन्मुक्त आनंद और
स्वच्छंदता के सुख का  । ………… अरविन्द





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