गुरुवार, 25 सितंबर 2014

अंश हूँ

अंश हूँ
शुचिता के सागर का
निर्मल प्रेम की
परिणति हूँ।

कहाँ से मिले
मलिन वस्त्र
विकृत अहंकृति के
अहंकार का
पुतला हूँ,क्यों?

इच्छाओं का ज्वलित बवंडर
कामनाओं का पुंज,
निजता का भग्न दूत
अस्थिर चित्त का
नर्तन हूँ।

कहाँ गया वह ब्रह्म सरोवर
कहाँ गयी शांत सरिता
कहाँ लुट गयी
आनंद धरोहर
कहाँ छिपी ज्ञान सविता।

झूठा है सब शब्दजाल यह
झूठी मान उपाधि सब।
झूठा है संसृति का केतु
झूठी अस्ति का हेतु सब।

मिथ्या अस्थि बंधन सारा
मिथ्या चंचल प्राण विकल।
सार्थकता के नाथ परात्पर
क्यों छुटा नाद परा अविकल।

ग्रंथि बड़ी गहरी है
इसका मूल ढूंढ़ न पाया हूँ।
शांत मन:स्थिति मन मसोसती
संभाल नहीं मैं पाया हूँ।

उपलब्धि सब शून्य हुई है
अर्थहीन जगती सारी।
व्यर्थ जन्म और व्यर्थ मृत्यु है
व्यर्थ प्रकृति विकृति सारी।

जीवन अथक यात्रा केवल
समझ नहीं पाते है ।
किसी वृक्ष को नीड़ समझ
अकारथ पिटे जाते हैं।....अरविन्द

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