मंगलवार, 5 अगस्त 2014

आसमान पर

आसमान पर जाकर ज्योंही देखता हूँ नीचे
हर चीज छोटी हो जाती है ऊँचे उठकर ।
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बिखरने पर आ ही गए हैं
तो बिखर जाएंगे मिट्टी की तरह।
किसी के तो काम आएंगे
सिर पर छत बनाने के लिए।
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ख्वाहिशों नहीं ये मेरी बस रक्तबीज हैं
जितना दफ़नाऊँ कई गुणा जन्म लेती हैं।
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कैसे होंगे वे ,जो तोड़ नहीं पाये बंदिशें
न कविता ही समझते हैं ,न भावना को।
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हमने भी कुछ बाज पाल रखे हैं मन की कोटर में
अपना ही माँस खिलाते हैं और मुस्कुराते हैं हम ।
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नित सुबह उठ शाप देना यही काम है
अक्सर जो लोग मंदिरों में माथा टेकते हैं।
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दूसरों में दोष देखना गिन  गिन  कर
दोस्तों ने आजकल यही शुगल रखा है। ………… अरविन्द






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