यां चिन्तयामि
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बुधवार, 23 जुलाई 2014
दरकती है ईष्टिका
दरकती है ईष्टिका
राग मंदिर की
वैसे ही जागती है
ज्ञानोद्दीप्त मुनि मन में
विराग अनल हवन की।
स्थिर यहां
असंभव आकाशकुसुम
सम्बन्ध -च्युत
परिवर्तनशील
भव -विभव जीवन
मुक्त -उन्मुक्त
हो रही
मन वाञ्छा भुवन की।
वितान का
अस्थिर आच्छादन
स्व -निर्मित
अज्ञान भवन
मोह तान
मन -भावन।
साक्षात हुआ सत्य
प्राकृत की कृपा
अनुरक्त राग हुआ ध्वस्त।
मुक्त हुआ भुक्त
आरम्भ की उड़ान
उन्मुक्त गगन की।
मूल को मूल की चाह
अश्वत्थ के जीर्ण पर्ण
स्वतः चाहें दाह।
मिटी चाह
क्षण -भंगुर जीवन की।
सार्थक
नहीं संसार ,
सार्थक
न आचार ,विचार
दुर्निवार।
सार्थक
न देह ,मन
भौतिक व्यवहार।
सार्थक
न युवा -यौवन
स विकार।
सार्थक नित्य
आत्मगत भाव का
स्वभाव।
फिर क्यों न इच्छा हो
अतनु की । …………… अरविन्द
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