गुरुवार, 10 जुलाई 2014

अनुभूतियाँ

अनुभूतियाँ जो हो रहीं हैं
नित नई ,
शब्द उनके लिए
अक्सर मिलते नहीं।
होंठ पर आ तितली
गुदगुदा गयी ,
तुम ही कहो --
कौन सा है शब्द 
इसके लिए सही।
पालने में शिशु
सोता हुआ
मारता किलकारी
अचानक जाग कर .
व्यस्त माता का हृदय
सब त्याग कर
मुस्कुराते चौंक पड़ती आँख तब।
है नहीं वे शब्द
जो अभिव्यक्त करें --
विरह बाद
मिलन के उल्लास को ,
कोर भीगी
झुकी आँख ,पलकें गिरीं
कौन शब्द कहे
मानिनी के मानसिक
परिताप को, हुलास को।
मन कभी एकांत के घन वास में
डूबता तिरता बुदबुदा उठे
कहो ,मेरे कवि
 क्या तुम कह सको --
प्रेम की सीत्कार है या
ताप का संताप ये।
अनुभूतियाँ तो
पल -प्रतिपल दे रहीं
चुनौतियां कवि को ,
परिभू ,स्वयंभू शब्द को,
तुम ही कहो।
अनुभूति ही थी
सघन वट वृक्ष तले
जगा गयीं किसी बुद्ध को
कुछ बिन कहे।
शब्द के वे मन्त्र सारे
निष्प्रभ ,योग याग
सब  निष्फल हुए।
मौन भी उस  भाव को
व्यक्त कर पाया नहीं
बोध के अनुभाव को ,अनुराग को।
थका हारा  निराश प्रेमी जब
अपनी प्रिया की गोद  में आ
सिर धरे ,
सुबकते से उस प्राण से ये पूछ लो
कौन सा है  शब्द वह जो
गोद के संवाद को
मुखरित करे।
शब्द तो संकेत हैं
उस सत्य के,
मन जिन्हें गहरे में है
महसूसता ।
शब्द  विश्लेषण हैं
संश्लेषणा  के ,
 आदमी है एकांत में
 जिन्हें है भोगता।
 ………………… …अरविन्द

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