बुधवार, 2 जुलाई 2014

इहाँ नहीं ,उहाँ नहीं

अच्छे खैरख्वाह हैं हमारे ,
जख्म देकर हाल पूछते हैं।
लौट आओ ,लौट आओ ,
निशाने के लिए सर ढूंढते हैं।
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मंदिरों में बैठा मेरा रब्ब देखो रो रहा
क्यों बाँध लिया मुझे तुमने
मंदिर मस्जिद की जंजीरों में ?
मैं तो उन्मुक्त सब विकल्पों से शून्य हूँ
पुकारते हो क्यों मुझे
नाम की लकीरों में ?
अक्षर परब्रह्म हूँ
न जात  पात लिंग है
अलिंग होकर सबमें
सलिंग हुआ रहता हूँ।
आदमी ही नहीं --
जड़ चेतन के समस्त तत्व
रचता भी मैं और मैं ही समाहर्ता हूँ।
पशु पक्षी ,जीव जंतु
पेड़ पौधे जल जीव
किसी को न चिंता -
मैं कहाँ हूँ और कैसा हूँ !
आदमी के पेट में
ये किसने विभेद डाला
मेरा रब्ब मेरा
उसका रब्ब नहीं हूँ ?
बड़े बड़े जपी -तपी
संत और प्रतापी पति
मेरे भीतर बैठ कर ,
मुझे ही ध्या गए।
कण -कण में समाया देख
मेरा रूप रच खुद
मुझमें समा गए।
आज ये वितंडावाद
रच रहे कई आचार्य
अर्थ का ध्यान करें ,
मुझे न बुला रहे।
शास्त्र सभी व्यर्थ हुए
तर्क भी असमर्थ हुए
पाखंडी शब्दजाल में
जन -मन  को उलझा रहे।
कहाँ नहीं मैं ?--मैं पूछता सभी से हूँ --
यहाँ नहीं ,वहां नहीं
इहाँ नहीं ,उहाँ नहीं
कहें सभी दम्भी ,
भ्रम सबको भरमा रहे। ………....... अरविन्द

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