सोमवार, 21 जुलाई 2014

कविता में गधे

कविता में गधे
और गधों की कविता
एक जैसे नहीं होते।
दोनों में फर्क है।
कविता में गधे --
हँसते हँसाते हैं ,
और गधों की कविता
अप्रासंगिक
शब्दों का बोझ उठाये
रेंकती है।
असंतुलित अनुभूति
शब्दों की आड़ में
बीमारी ही सेंकती है।
 गधों की कविता
वीभत्स रस की
तंग गलियों में
उलजलूल फैंकती है।
कविता के छद्म में
विकृति
झांकती है।
नयी कविता
केवल जीवन के ,
अनुभूत सत्य आंकती है।
उधार ली गयी
अपरिपक्व प्रतिभा
दूसरों के बर्तनों में
गीद्ध --सा
झांकती है।
इसलिए कविता में
गधे तो स्वीकृत हैं
पर गधों की कविता को
मनुजता धिक्कारती है।
आलोचना की
ज्वलित  शिखा में
स्वाहा --स्वाहा की ध्वनि
गधों की कविता की 
राख
निर्ममता से उछालती है। …………… अरविन्द



कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें