प्रकृतेर्गुणसम्मूढा: सज्जन्ते गुणकर्मसु |
तानकृत्स्नविदो मन्दान्कृत्स्नविन्न विचालयेत् || २९ ||
प्रकृतेः – प्रकृति के; गुण – गुणों से; सम्मूढाः – भौतिक पहचान से बेवकूफ बने हुए; सज्जन्ते – लग जाते हैं; गुण-कर्मसु – भौतिक कर्मों में; तान् – उन; अकृत्स्नविदः – अल्पज्ञानी पुरुष; मन्दान् – आत्म-साक्षात्कार समझने में आलसियों को;कृत्स्न-वित् – ज्ञानी; विचालयेत् – विचलित करने का प्रयत्न करना चाहिए |
भावार्थ
माया के गुणों से मोहग्रस्त होने पर अज्ञानी पुरुष पूर्णतया भौतिक कार्यों में संलग्न रहकर उनमें आसक्त हो जाते हैं | यद्यपि उनके ये कार्य उनमें ज्ञान के अभाव के कारण अधम होते हैं, किन्तु ज्ञानी को चाहिए कि उन्हें विचलित न करे |
तात्पर्य
अज्ञानी पुरुष स्थूल भौतिक चेतना से और भौतिक उपाधियों से पूर्ण रहते हैं | यह शरीर प्रकृति की देन है और जो व्यक्ति शारीरिक चेतना में अत्यधिक आसक्त होता है वह मन्द अर्थात् आलसी कहा जाता है | अज्ञानी मनुष्य शरीर को आत्मस्वरूप मानते हैं, वे अन्यों के साथ शारीरिक सम्बन्ध को बन्धुत्व मानते हैं, जिस देश में यह शरीर प्राप्त हुआ है उसे वे पूज्य मानते हैं और वे धार्मिक अनुष्ठानों की औपचारिकताओं को ही अपना लक्ष्य मानते हैं | ऐसे भौतिकताग्रस्त अपाधिकारी पुरुषों के कुछ प्रकार के कार्यों में सामाजिक सेवा, राष्ट्रीयता तथा परोपकार हैं | ऐसी उपाधियों के चक्कर में वे सदैव भौतिक क्षेत्र में व्यस्त रहते हैं, उनके लिए आध्यात्मिक बोध मिथ्या है, अतः वे इसमें रूचि नहीं लेते | किन्तु जो लोग आध्यात्मिक जीवन में जागरूक हैं, उन्हें चाहिए कि इस तरह भौतिकता में मग्न व्यक्तियों को विचलित न करें | अच्छा तो यही होगा कि वे शान्तभाव से अपने आध्यात्मिक कार्यों को करें | ऐसे मोहग्रस्त व्यक्ति अहिंसा जैसे जीवन के मूलभूत नैतिक सिद्धान्त तथा इसी प्रकार के परोपकारी कार्यों में लगे हो सकते हैं |
निहितार्थ ---
प्रकृति के गुणों से मोहित हुए पुरुष गुण और कर्मों में क्रमशः गुणों की ओर देख कर उनमें आसक्त होते हैं। उन अच्छी प्रकार न समझने वाले ---मन्दान् ---को हतोत्साहित न करें। अपनी शक्ति और स्थिति का आकलन करके कर्म में प्रवृत होने वाले ज्ञान मार्गी साधकों को चाहिए कि कर्म को गुणों की देन मानें , अपने को कर्ता मान कर अहंकारी न बनें। निर्मल गुणों के प्राप्त होने पर भी उनमें आसक्त न हों। किन्तु निष्काम कर्मयोगी को कर्म और गुणों में समय देने की आवश्यकता नहीं है। उसे तो समर्पित भाव से कर्म करते जाना चाहिए। कौन गुण आ रहा है या जा रहा है --- यह देखना इष्ट की जिम्मेदारी हो जाती है। ज्ञानयोगी, गुणों का परिवर्तन और क्रम क्रम से उत्थान -पतन इष्ट की ही देन है --यह मानता है। इसे अनन्यता भी कहते हैं। इसी कारण कर्ता का अहंकार या गुणों में आसक्ति होने की समस्या से बचा जा सकता है।
संकेत --
मन्दान् --वे आसक्ति के अंतर्गत बद्ध जीव जो केवल स्व स्व वृति से विमोहित हैं और गुणों को ही सत्य समझते हैं ,उन लोगों के प्रति ज्ञानी को प्रतिक्रिया से रहित होना चाहिए क्योंकि स्वभाव प्रकृति प्रदत्त है। परिवर्तित नहीं हो सकता।
तानकृत्स्नविदो मन्दान्कृत्स्नविन्न विचालयेत् || २९ ||
प्रकृतेः – प्रकृति के; गुण – गुणों से; सम्मूढाः – भौतिक पहचान से बेवकूफ बने हुए; सज्जन्ते – लग जाते हैं; गुण-कर्मसु – भौतिक कर्मों में; तान् – उन; अकृत्स्नविदः – अल्पज्ञानी पुरुष; मन्दान् – आत्म-साक्षात्कार समझने में आलसियों को;कृत्स्न-वित् – ज्ञानी; विचालयेत् – विचलित करने का प्रयत्न करना चाहिए |
भावार्थ
माया के गुणों से मोहग्रस्त होने पर अज्ञानी पुरुष पूर्णतया भौतिक कार्यों में संलग्न रहकर उनमें आसक्त हो जाते हैं | यद्यपि उनके ये कार्य उनमें ज्ञान के अभाव के कारण अधम होते हैं, किन्तु ज्ञानी को चाहिए कि उन्हें विचलित न करे |
तात्पर्य
अज्ञानी पुरुष स्थूल भौतिक चेतना से और भौतिक उपाधियों से पूर्ण रहते हैं | यह शरीर प्रकृति की देन है और जो व्यक्ति शारीरिक चेतना में अत्यधिक आसक्त होता है वह मन्द अर्थात् आलसी कहा जाता है | अज्ञानी मनुष्य शरीर को आत्मस्वरूप मानते हैं, वे अन्यों के साथ शारीरिक सम्बन्ध को बन्धुत्व मानते हैं, जिस देश में यह शरीर प्राप्त हुआ है उसे वे पूज्य मानते हैं और वे धार्मिक अनुष्ठानों की औपचारिकताओं को ही अपना लक्ष्य मानते हैं | ऐसे भौतिकताग्रस्त अपाधिकारी पुरुषों के कुछ प्रकार के कार्यों में सामाजिक सेवा, राष्ट्रीयता तथा परोपकार हैं | ऐसी उपाधियों के चक्कर में वे सदैव भौतिक क्षेत्र में व्यस्त रहते हैं, उनके लिए आध्यात्मिक बोध मिथ्या है, अतः वे इसमें रूचि नहीं लेते | किन्तु जो लोग आध्यात्मिक जीवन में जागरूक हैं, उन्हें चाहिए कि इस तरह भौतिकता में मग्न व्यक्तियों को विचलित न करें | अच्छा तो यही होगा कि वे शान्तभाव से अपने आध्यात्मिक कार्यों को करें | ऐसे मोहग्रस्त व्यक्ति अहिंसा जैसे जीवन के मूलभूत नैतिक सिद्धान्त तथा इसी प्रकार के परोपकारी कार्यों में लगे हो सकते हैं |
निहितार्थ ---
प्रकृति के गुणों से मोहित हुए पुरुष गुण और कर्मों में क्रमशः गुणों की ओर देख कर उनमें आसक्त होते हैं। उन अच्छी प्रकार न समझने वाले ---मन्दान् ---को हतोत्साहित न करें। अपनी शक्ति और स्थिति का आकलन करके कर्म में प्रवृत होने वाले ज्ञान मार्गी साधकों को चाहिए कि कर्म को गुणों की देन मानें , अपने को कर्ता मान कर अहंकारी न बनें। निर्मल गुणों के प्राप्त होने पर भी उनमें आसक्त न हों। किन्तु निष्काम कर्मयोगी को कर्म और गुणों में समय देने की आवश्यकता नहीं है। उसे तो समर्पित भाव से कर्म करते जाना चाहिए। कौन गुण आ रहा है या जा रहा है --- यह देखना इष्ट की जिम्मेदारी हो जाती है। ज्ञानयोगी, गुणों का परिवर्तन और क्रम क्रम से उत्थान -पतन इष्ट की ही देन है --यह मानता है। इसे अनन्यता भी कहते हैं। इसी कारण कर्ता का अहंकार या गुणों में आसक्ति होने की समस्या से बचा जा सकता है।
संकेत --
मन्दान् --वे आसक्ति के अंतर्गत बद्ध जीव जो केवल स्व स्व वृति से विमोहित हैं और गुणों को ही सत्य समझते हैं ,उन लोगों के प्रति ज्ञानी को प्रतिक्रिया से रहित होना चाहिए क्योंकि स्वभाव प्रकृति प्रदत्त है। परिवर्तित नहीं हो सकता।
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