शुक्रवार, 11 जुलाई 2014

गुरु पूर्णिमा

आज गुरु पूर्णिमा है। इसलिए गुरु तत्व पर विचार करना अपेक्षित है। आजकल शिक्षित तथा अर्धशिक्षित समाज में अधिकांश लोग गुरु के प्रति कोई विशेष आदर नहीं रखते बल्कि गुरु तत्व पर ही प्रश्न करते हैं कि गुरु की आवश्यकता है या नहीं ? इनमें अधिकांश लोगों का विचार है कि मनुष्य को जीवन के पथ पर स्वावलम्बी होकर चलना चाहिए ,उसे शक्ति अथवा भाव के विकास के लिए किसी दूसरे पर आश्रित नहीं होना चाहिए। आध्यात्मिक पथ पर भी मनुष्य का सम्बन्ध साक्षात परमात्मा के साथ है ,जिसके लिए भक्ति मार्ग है। इन दोनों के बीच गुरु नामक किसी व्यक्ति के लिए स्थान कहाँ ? इस प्रकार के चिंतन में गुरु की सत्ता के प्रति संदेह और अनास्था का स्वर सुनाई देता है। अध्यात्म क्षेत्र में गुरु की आवश्यकता है अथवा नहीं , इस विषय पर विचार करने से पूर्व साधारणत: हम इसी निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि जीवन में पहले -पहल ऐसी एक अवस्था विद्यमान रहती है , जब जीव को शक्ति ,ज्ञान ,भाव आदि सभी विषयों में परमुखापेक्षी रहने को बाध्य होना पड़ता है। ऐसा ही प्रकृति का नियम है। तदनन्तर , भीतरी शक्ति और बुद्धि वृति के विकास के साथ बाहरी सहायता इतनी अपेक्षित नहीं रहती।  बाहरी सहायता की अपेक्षा न रहने पर भी भीतर किसी अचिन्त्य शक्ति की अधीनता तब भी उसे रहती है। उसके बाद जीवन -पथ पर पूर्ण और चरम स्थिति प्राप्त होने पर स्वाधीनता का विकास होता है एवं अन्य किसी की भी अपेक्षा नहीं रहती। स्वभाव होने से ही जो होने वाला होता है ,वह निरपेक्ष रूप से हो जाता है।
       साधारणतः आरम्भिक अवस्था में प्रत्येक व्यक्ति को निर्देशक की आवश्यकता रहती है। दूसरी तरफ आध्यात्मिक जीवन अत्यंत गहन , दुर्गम है। इसलिए इस पथ पर बाहरी सहायता के बिना चलना ,विकास को अर्जित करना , साध्य को उपलब्ध होना सम्भव नहीं है क्योंकि अध्यात्म व्यक्ति विकास की चरमोपलब्धि  है। इसी बाहरी सहायता को प्राप्त करने के लिए गुरु आवश्यक है। यह भी जानना चाहिए कि सभी अध्यात्म -पथ के पथिक नहीं हो सकते। क्योंकि जीवन की भौतिक सुख सुविधाओं को प्राप्त करना ही ऐसे लोगों के लिए महत्वपूर्ण है। परन्तु वे ,जो परम तत्व के अभिलाषी हैं ,अध्यात्म पथिक हैं ,उन्हें गुरु की सहायता अवश्य चाहिए। इस विषय में विशद् आलोचना से पूर्व गुरु तत्व क्या है ,गुरु का वास्तविक कार्य क्या है ,गुरु कितने प्रकार के होते हैं ,गुरु के साथ शिष्य का तथा शिष्य के साथ गुरु का वास्तविक सम्बन्ध क्या है ,गुरु -शिष्य भाव की चरम परिणति कहाँ होती है ? इत्यादि विषयों की आवश्यकतानुसार आलोचना भी जरुरी है।
       सामान्यतः कहते हैं कि गुरु ज्ञान दाता है। गुरु की ज्ञान दाता के रूप के अतिरिक्त कल्पना नहीं की जाती। जबकि गुरु केवल ज्ञान दाता ही नहीं वह कर्म ,भक्ति  और लक्ष्य दाता भी है। इसे समझाना भी आवश्यक है। संसार में ,इस सन्दर्भ में दो शब्द प्रचलित हैं --गुरु और सद्गुरु। साधारण दृष्टि में गुरु को ही सद्गुरु स्वीकार कर लिया जाता है। परन्तु ध्यान देना  चाहिए कि यदि हम सद्गुरु शब्द का प्रयोग करते हैं तो हमें असदगुरु की भी कल्पना करनी चाहिए। तभी सद्गुरु की सार्थकता निश्चित हो सकेगी।
      पूर्ण सत्य ही यदि सत्य का अखंड स्वरूप है , तो ऐसी स्थिति में जिनके अनुग्रह से इस अखंड सत्य का स्वरूप स्पष्ट होता है या प्रकाशित होता है ,वे ही वास्तव में सद्गुरु हैं। जो सत्य के अखंड रूप को व्यक्त ,प्रकट ,प्रकाशित करने के स्थान पर खण्ड सत्य को प्रकट करते हैं ,वे केवल गुरु हैं। अतः यह जानना प्रत्येक शिष्य के लिए आवश्यक हो जाता है कि वे खंड सत्य के प्रति समुत्सुक हैं या अखंड सत्य के प्रति। ----यही गुरु को पहचानने का तरीका भी है। आजकल अधिकतर खंड सत्य के उद्घोषक विद्यमान हैं। इसीलिए अध्यात्म में भीड़ होने के बावजूद भी सत्य संधान नहीं हो पा  रहा.।
    जो स्वयं अँधा है ,वह जैसे दूसरे को मार्ग नहीं दिख सकता ,उसी प्रकार खंड सत्य के प्रवक्ता अखण्ड के पथ की ओर इंगित नहीं कर सकते। इसलिए सद्गुरु के रूप में भगवदिच्छा आवश्यक है। और भारतीय चिंतन में परम तत्व ही सद्गुरु है।
कहा भी गया है ----अखण्ड मण्डलाकारम् व्याप्तं येन चराचरम् ,तत्पदं दर्शितं येन तस्मै सद्गुरवे नमः। --- अखंड का ,जो मंडलाकार है ,चराचर में विद्यमान है ,उस व्यापक अखंड के पद का जो दर्शन करवा दे वह सद्गुरु है। इस श्लोक में मंडलाकार और चराचर में व्याप्त --ये दोनों अपेक्षाएं सद्गुरु के लिए आवश्यक हैं। क्योंकि चराचर में विद्यमानता अभेद का आग्रह है। इसी तत्व का अभाव आजकल मिलता है। --------------क्रमशः --------- अरविन्द 

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