खुद को खुदा के हाथ दे, खुद मुख्त्यार हो गए
किसी से कोई गिला न रहा खुदा के यार हो गए ।
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देखा नहीं उसे , न अभी छू भी उसे पाया हूँ
जो भी शक्ल बनाता हूँ उसी में मिलता है वह ।
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लोग नाराज हैं कि हाँ में हाँ नहीं मिलाता हूँ
कैसे समझाऊं उन्हें ,मुझे दीखता कुछ और है ।
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बहुत हल्का था कि झटका खा गया
उसकी गली में गड्ढे ही बहुत गहरे थे।
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हाथ उठाता हूँ , तो पकड़ लेता है हाथ
सिर बचा ही नहीं कि सिर को उठा सकूँ।
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जान जान कर भी जान को जान नहीं पाया
लोग कहते हैं कि बहुत कुछ जानता हूँ मैं ।
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खुदा मिले तो पूछूं कि क्या यह चीज बनाई है
जितना ही पकड़ना चाहता हूँ उतना ही फिसलती है।
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झुकते थे ,सलाम करते थे ,सबको पसंद थे हम
आँखें जो खुलीं बिरादरों ने बिरादरी बाहर कर दिया ।
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हम लुटा चुके हैं आशियाना बाजार में
कोई लुटा पिटा हो तो हमारे साथ चले ।
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कहाँ तुम्हारा दर है कि जहाँ सिजदा करूँ प्रीतम
न मस्जिद में तुम मिलते हो न मंदिर तेरा घर है।
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लहरें समुन्द्र की मेरे पाँव पखारती हैं
किनारे से ही मैं अनन्त न हो जाऊं । ………अरविन्द -उवाच
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