बुधवार, 25 जून 2014

अरविन्द -उवाच

खुद को खुदा के हाथ दे, खुद मुख्त्यार हो गए
किसी से कोई गिला न रहा खुदा के यार हो गए ।
          --------
देखा नहीं उसे , न  अभी छू भी उसे पाया हूँ
जो भी शक्ल बनाता हूँ उसी में मिलता है वह ।
        ----------
लोग नाराज हैं कि हाँ में हाँ नहीं मिलाता हूँ
कैसे समझाऊं उन्हें ,मुझे दीखता कुछ और है ।
         ---------
बहुत हल्का था कि झटका खा गया
उसकी गली में गड्ढे ही बहुत गहरे थे।
         ---------
हाथ उठाता हूँ , तो पकड़ लेता है हाथ
सिर बचा ही नहीं कि सिर को उठा सकूँ।
       --------
जान जान कर भी जान को जान नहीं पाया
लोग  कहते  हैं कि बहुत कुछ जानता हूँ मैं ।
            ---------
खुदा मिले तो पूछूं कि क्या यह चीज बनाई है
जितना ही पकड़ना चाहता हूँ उतना ही फिसलती है।
         --------
झुकते थे ,सलाम करते थे ,सबको पसंद थे  हम
आँखें जो खुलीं बिरादरों ने बिरादरी बाहर कर दिया ।
           ----------
हम लुटा चुके हैं आशियाना बाजार में
कोई लुटा पिटा हो तो  हमारे साथ चले ।
        ----------
कहाँ तुम्हारा दर है कि जहाँ सिजदा करूँ प्रीतम
न मस्जिद में तुम मिलते हो न मंदिर तेरा घर है।
         --------
लहरें समुन्द्र की मेरे पाँव पखारती हैं
किनारे से ही मैं  अनन्त न हो जाऊं । ………अरविन्द -उवाच


       

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें