गुरुवार, 12 जून 2014

खेलता है प्रभु !

खेलता है प्रभु
नाचते हैं रंग
नाचती प्रकृति
शिव -शिवा संग।
विराट नाचता विभ्राट
उड़ुगणों के संग नाचे -
मार्तण्ड -प्रकाश।
न अंधकार है यहां
न दुपहरी का ताप
रंग में अंतरंग हो ,
खेलता विभ्राट।
जन शून्य प्रदेश यह
भेद अभेद लुप्त  है
परम की क्रीड़ास्थली
राग -द्वेष मुक्त है।
एकांत वेश भाव में
प्रकृति स्व  भाव में
लास्य की रंग -स्थली
पंच तत्व लिप्त है।
माया नहीं ,भ्रम नहीं
ममत्व और मम नहीं
स्वत्व भी क्लेशमुक्त
दिव्यात्मा नित्य है।
व्यक्ति यहां क्षीण -सा
खुले नेत्र ताकता
असीम के नृत्य में
स्व -क्षुद्रता है मापता।
क्षीण हुआ अहंकार
अस्तित्व है कांपता
विराट के नृत्य को
लघु मानव है आँकता। ............. अरविन्द

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