शुक्रवार, 13 जून 2014

अपने आप को

अपने आप को
जन्म देने के लिए ही
जन्म लेता है आदमी,
वैरागी होने के तो यहां
अवसर बहुत हैं।
राग रखते हैं सब
अजन्में ,अदेखे
परमात्मा से
भार नहीं होता वहां
स्वार्थी अहंकार का।
अपनत्व भी मुरझा जाता है
शहतूत के पीले पत्ते सा
वृक्षों के सिर पर
आग सा उगता है
विद्वेषी सूरज ।
अकेला होना ही
परमात्मा होना है।
अपनों की रूसवाइयां भी
अकेला होने नहीं देतीं।
मैं मेरी ,मैं मेरी की
सुनता रहता हूँ भेरी
दूसरे की चिंता ने
यहां -
कभी सुबह नहीं हेरी।
ले गया छीन  कर
वह प्राण मेरे
जान नहीं पाया था ,
ओट में शिकारी है।
बरस जाना
भरे
बादलों की तरह
आदमी नहीं होना है ।
आंच लगे  थोड़ी सी
फट जाए गुब्बारा।
आदमी नहीं होना है।
खा जाता है इंसान को
धुँधुआता कोप भी -
धधकते हुए लावे की
आँखें नहीं होतीं। ................ अरविन्द

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