रविवार, 29 जून 2014

अरविन्द दोहे

लीलामय यह जगत है ,लीलामय ब्रह्म ।
लीला तत्व न जानहिं ,दुखित आत्मानंद।
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ज्ञानी जन का मौन ही  ,अज्ञानी कोउ ताप .
खुले नयन न दीखे वह  , ढूंढन को संताप ।
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दुनिया सारी बहुमुखी ,दिनराती ले न चैन।
न खुद जीवे न जीवन दये ,बेमतलब के बैन।
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जग को परखो जांच लो ,तनिक न आवै हाथ ।
पंच तत्व सब शून्य है , धरती हो आकाश ।
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ज्ञानी सारे कहा करें ,भीतर आँखें खोल।
भीतर तो सब अंध है ,यही ढोल का पोल।
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सब जग जाना जाँच लिया ,इच्छा का है खेल ।
पंचभूत खुद रचत रहे, सत रज तमस हू मेल ।
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रमण किया जगती मिली ,मिला नहीं वह राम ।
मायापति  का  जगत  है ,माया  में  घनश्याम ।
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सत्य सत्य सब कहत हैं ,सत्य बता न पाहीं।
शब्दाडम्बर जाल में ,लोकन  को  भरमाहिं।
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मनुआ तू तो भटक कर,  बहुतक हुआ बेहाल .
मंदिर मस्जिद छोड़ सब ,अपन मूल संभाल । .......... अरविन्द दोहे

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