मंगलवार, 3 जून 2014

आस्ट्रेलिया ---६

आस्ट्रेलिया ---६
कुछ दिनों से लगातार वर्षा हो रही है। सूरज भी पल दो पल के लिए अर्पित जल के अर्घ्य को ग्रहण करने के लिए निकलता है ।  सुबह सुबह आँख तो अपनी आदत के कारण खुल जाती है ,परन्तु यहां की मीठी -मीठी सर्दी में  लिहाफ अपनी  गलबहियों से हमें निकलने ही नहीं देता और मन पुनः चहचहाती सुबह नींद के मखमली दुपट्टे में दुबक कर अनजाने देशों की स्वप्निल दुनिया की सैर करने के लिए निकल जाता है। पता ही तब चलता जब  दस बजते हैं और ईशान आकर कानों के किनारों पर अपनी तीखी और प्यारी कुहुक छोड़ देता है। तब हमें लिहाफ बाँध नहीं पाता ,बचपन की उछलती ,मचलती ,ठुमकती किलकारियां अधिक स्नेहिल ऊष्मा प्रदान करती है।  और मन भारतीय बच्चे के मुँह से निकलती तुतलाती अंग्रेजी के वाक्यों का आनन्द लेने लगता है। परिवेश बच्चों के निर्माण में कितना गहरा प्रभाव छोड़ता है --इसका भान यहां आकर ही मिला। जहाँ हमारे बच्चे अपनी माँ की गोद में सिर छुपा कर इठलाते रहते हैं ,वहीँ यहां सुबह ही  टी वी में विविध शैक्षणिक कार्टून बच्चों को जगाते हैं ,उनके संग खेलते हैं और अनजाने में ही उन्हें भाषा के व्यावहारिक प्रयोगों से अवगत करा देते हैं और बच्चे धारावाही प्रवाह में स्वयं को अभिव्यक्त करना सीख जाते हैं।
       भारतीय परिवेश निषेधात्मक है। सुबह से ही अनेक निषेधात्मक वाक्य हमारे यहां सुने जा सकते हैं। परिणाम यह है कि बच्चों की जिज्ञासा को पनपने का अवसर ही नहीं मिलता। न भाषा पर सहज पकड़ हो पाती है और न मुखरता ही मिल पाती है। इसीलिए हमारे अधिकतर बच्चे शर्मीले ,दबे हुए और मौन रहते हैं। जबकि यहां शिक्षण की  सभी अनौपचारिक विधियों का प्रयोग बच्चों के विकास के लिए हो रहा है।
      ईशान ने मुझे शैया छोड़ने के लिए बाध्य कर दिया और मैं अलसाये मन को किनारे रख बच्चे संग खेलने लगा।
          दैनिक कार्यों से निवृत होने के लिए गुसलखाना पहली प्राथमिकता है। यहां सर्दी के लगातार दस महीने होते हैं। इसलिए नलकों में सदा ही गर्म पानी उपलब्ध रहता है। वहां, इन दिनों जून के महीने में हम ठन्डे पानी के लिए तरसते रहते हैं क्योंकि बिजली चली जाती है. फ्रिज काम करना बंद कर देते हैं और यहां ठंडा गर्म  पानी  सदा ही उपलब्ध रहता है। बिजली आँख मिचौनी नहीं खेलती।
जून के महीने में गर्म पानी से नहाना एक अद्भुत अनुभव है। भूमिगत पानी के सन्दर्भ में एक उल्लेखनीय तथ्य यह है कि यहां की सरकारों ने अभी तक धरती से पानी की एक भी बून्द नहीं निकाली हैऔर हमने जल का इतना दोहन किया है कि अब जल संरक्षण के लिए हमें आंदोलनों की आवश्यकता है। मुझे लगता है कि हिन्दोस्तान ही एकमात्र ऐसा देश है जिसमें प्राकृतिक संसाधनों का अधिकाधिक दोहन हो रहा है। हमारी सरकारों के पास भविष्य की योजनाएं नहीं हैं। यह देश धृतराष्ट्रों का देश है। हमने पृथ्वी ,जल ,तेज ,वायु और आकाश सभी को दूषित कर दिया है और हम चाहते हैं कि हम सदा चिरंजीवी रहें --अद्भुत है यह नीतिगत अंधत्व !
          दूसरी तरफ हमारा पड़ौसी चीन ! चीन जानता है कि उनकी बढ़ती हुई जनसँख्या के कारण उन्हें भविष्य में धरती भी चाहिए और अनाज भी । यहां जनसँख्या कम होने के कारण चीन की कम्पनियाँ ऑस्ट्रेलिया में बड़े बड़े फार्म ले रही हैं और हम पुराकालीन चादर में ही पाँव पसार कर जीने की आलसी आदत से मुक्त नहीं हो पा रहे हैं। अब तो न चादर सुरक्षित है और न हम। पर हम अपनी कछुआ प्रवृति और शतुर्मुर्गी आदत को छोड़ना नहीं चाहते।
   यह ऐसा मारक घुन हमारी सभ्यता और संस्कृति में लग चुका है जिसे न व्यक्ति समझ रहा है ,न संस्थाएं और न ही सरकारें।

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