बुधवार, 25 जून 2014

एकांत की अन्तरंगता

                   एकांत की अन्तरंगता
आज जब सर्वत्र आवाजें ही आवाजें हो , वहां  मनुष्य को एक सघन एकांत उपलब्ध हो जाए --यह सौभाग्य का क्षण है। अपने आप से मिलने का अवसर मिलता है। अपने ही खो चुके मन को ढूंढने का मौका मिलता है। अपने आप से बतियाने की चाह उठती है। अपने ही जख्मों को कुरेदने का आत्मदाही सुख मिलता है। अपने सुख के क्षणों को तरतीब देने का समय मिलता है। खुद ही प्राप्त किये दुःख पर हँसने की अदम्य लालसा खिलती है। एकांत भी तो एक दर्पण है ,ऐसा दर्पण जो हमें हमारा सर्वांग ,एक निर्मम डॉक्टर की तरह ,हमारे सामने खोल कर रख देता है। इसलिए एकांत सौभाग्यदायी है। आदमी को अपने आप से भागने का अवसर ही नहीं मिलता। एकांत कहता है कि लो ,अपने स्वयं का निरीक्षण करो। अपनी झुंझलाहट का परीक्षण करो। अपनी चिर -संचित असफलताओं के दर्शन करो। अपनी दुविधाओं को परखो और जानो कि कहाँ -कहाँ अपने आदमी होने से चुके हो --एकांत कहता है। किसी अजदहे की तरह, एकांत अपनी गुंजल में लेकर मनुष्य को अपना ही सामना करने के लिए बाध्य कर देता है। इसीलिए ज्यादातर लोग एकांत से भागते हैं। क्योंकि एकांत निर्मम मित्र है। और फिर ऐसा एकांत मिल जाए जहाँ कोई भी अन्य किसी से परिचित न हो , जहाँ भिन्न भिन्न संस्कृतियों का मिश्रण हो , जहाँ कोई भी किसी की भाषा न समझता हो ,जहाँ कोई भी किसी दूसरे को जानता न हो , जहाँ सब भीड़ में भी अकेले हों ,ठिठुरते ठिठुरते हों , जहाँ कोई धर्म ही न हो , कोई स्तुति न हो ,कोई पाखण्ड न हो ,कोई इच्छित स्वार्थ न हो  और न ही किसी दूसरे को देखने की चाह हो। ऐसा एकांत तो सौभाग्य से ही मिलता है।
            यहां विदेश में वह है। हमारे यहां एकांत को भी गम हुए बच्चे के समान ढूंढना पड़ता है। कोई अकेलेपन को भंग न कर दे ,तो आँख चुराओ ,कन्नी काट कर निकल जाओ ,जानबूझ कर व्यस्त होने का नाटक करो। अपने कमरे में बंद बैठे रहो ,ज्यादा से ज्यादा श्मशान में एकांत को ढूंढो ,किसी बगीचे में कोई कोना तलाशो ,बहुत मुश्किल होती है ,जब एकांत नहीं मिलता। घरो की छतों पर परिचित ,बाजारों में परिचित ,बागों में परिचित ,दुकानों में परिचित। बिना बताये आने वाले अतिथियों का झंझट ,रसोई की हलचल ,हर समय किसी न किसी के आने की आहट ,सभाओं का बुलावा ,मित्रों का जमघट ,सत्संगों की भरमार ,उपदेशकों के निर्देश ,कीर्तनों की ध्वनियां ,खेलते बच्चों की चिल्लाहट , हमारे यहां एकांत शौचालय में भी नहीं है।
            एकांत का अजदहा जैसे ही घेरता है ,तो सबसे पहले परिवार ही लुप्त होता है। एक एक कर सभी छिलके उत्तर जाते हैं ,पूर्णतया अनावृत मनुष्य स्वयं को देखने से भाग नहीं सकता। कर्म नैष्कर्म्य में बदल जाते हैं। मन अ -मना सा अनमना हो कर छिप  जाता है। धर्म लुप्त हो जाता है। ज्ञान तिरोहित। अस्तित्व जड़। समाज लय। मेरा तेरा मृत। अध्यात्म ध्वस्त। मित्र -अमित्र समाप्त। इयत्ता क्षीण। आंतरिकता शमित। दृष्टि विगत। साक्षित्व मौन। न स्वर्ग न नरक। कर्म -काण्ड विस्मृत। असफलताएँ विलीन। सम्बन्ध समाप्त। साहित्य सत्ताहीन। पठित अपठित। केवल शून्यता। केवल विराट। केवल अस्तित्वहीनता। केवल लघुता। यही वह सत्य है जो एकांत हमें देता है और हम इसी सत्य से सदा प्राङ्गमुख रहना चाहते हैं। यही जीते जी मरना है। यही जीवन मुक्ति है। ……………… अरविन्द

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