कल पूर्णिमा थी और मेरे कुछ आत्मीय मित्र लुध्याना में गायत्री
मन्त्र की दिव्यता में अखंड भाव से तल्लीन थे। गायत्री सवितृ साधना है।
जिसका हमारी देह ,मन ,बुद्धि ,चित्त ,हृदय और आत्म पर तत्काल प्रभाव होता
है। विशेषकर पूर्णिमा अर्थात जब चन्द्र अपनी समस्त कलाओं से मन को
उर्ध्वमुखी कर देता है। जप केवल वाचिक ,उपांशु या मौन ही नहीं होता बल्कि
जप में मनुष्य को चार विशेष श्रेणियाँ और प्रभाव अनुभूत होता है। चत्वारि
वाक् परिमिता पदानि ----ऋग्वेद। वे चार क्रमशः --बैखरी ,मध्यमा ,पश्यन्ति
और परा हैं। बैखरी उसे कहते हैं जो व्यक्त हो जाए। मन्त्र या जिसे आजकल नाम
कहते हैं ,उसका इसप्रकार उच्चारण हो कि आप सुनें और किसी अन्य को भी सुनाई
दे। मध्यमा अर्थात मध्यम स्वर में जप ,जिसे केवल आप ही सुनें ,समीपस्थ
बैठा व्यक्ति भी उस उच्चारण को न सुन सके।
यह उच्चारण कंठ से होता है। धीरे धीरे मन्त्र या नाम--- धुन में परिवर्त्तित हो जाता है और लयात्मकता की अवस्था में ,अन्य
इन्द्रियों का बोध नहीं रहता। साधना सूक्ष्म हो जाने पर पश्यन्ति अर्थात
मन्त्र को देखने अर्थात साक्षात्कृत की अवस्था आ जाती है । पश्यन्ति का
अर्थ ही देखना है। इस अवस्था में मन्त्र को जपा नहीं जाता ,बल्कि श्वास में
मन्त्र लय हो जाता है। परन्तु पश्यन्ति में मन को द्रष्टा के रूप में खड़ा
करना पड़ता है किन्तु साधन उन्नत होने पर सुनना भी नहीं पड़ता। जपै जपावै आपै
आप। अर्थात न स्वयं जपें ,न मन को सुनाने के लिए बाध्य करें और जप चलता
रहे। इसे अजपा भी कहते हैं। यही परा है।
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