हर रोज शाम को
उदास जाता हूँ।
विदेश की मौन सन्नाटे से भरी
गलियों में
अपने शहर की गलियों में
घरों के बाहर बैठी
बूढ़ियों को तलाशता हूँ।
मुस्कराते चेहरों की
भीड़ में
नमस्ते , नमस्कार करते
खो जाना चाहता हूँ।
हर रोज शाम को
उदास हो जाता हूँ।
वे घर
बहुत याद आते हैं ,जहाँ
शाम होते ही , बिना बताये
चाय की चुस्कियों के साथ
बतियाता रहा हूँ।
गलियों में घूमते
आवारा कुत्ते
याद आते हैं ,
जो मुझे सूंघते और
अपरिचित गुर्राते हैं।
घर के बाहर --
आलू ,गोभी ,मूलियां ले लो "
पुकारने वाला
याद आता है।
बिना कहे ही जो
सब्जियों की टोकरी
मेरे खुले हाथों में थमा जाता है।
हलवाई की दूकान पर
बेमतलब गप्पें हांकते लोग
नाई की दूकान पर
अखबार पढ़ते
बूढ़े ,
सब याद आते हैं।
ज्योंहीं यहां शाम होती है।
यहां भीगती हुई शाम में
दौड़ती कारें ,
ओवरटाइम काम से
थके कंधे ,
घरो की खिड़कियों पर
टंगे मोटे परदे ,
अपने आप में डूबे हुए लोग ,
अपरिचित मुस्कानें ,
सब हैं।
पर शाम होते ही मन
उदास हो जाता है।
यहाँ साफ़ सुथरी
सडकों पर चलते ही
मुझे गड्ढों भरी अपनी
गलियां याद आती हैं।
धूल भरी हवाएँ ,
पसीने की गंध ,
स्कूटरों के हार्न ,
चोंकों में खड़े आवारा लडके ,
फब्बतियों की ध्वनियाँ ,
गालियों के गीत ,
आवारा घूमते पशु ,
यहां नहीं हैं ,
याद बहुत आते हैं।
हर रोज शाम होते ही
उदास हो जाता हूँ। ………………अरविन्द
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