सोमवार, 9 जून 2014

शून्य की अद्भुत लीला !

क्या कहूँ
 शून्य की अद्भुत लीला ,
शून्य  रूप तुम्हारा !
शून्य शून्य से शून्य ही निरसत
शून्य हुआ लय शून्य विसर्जित
शून्य ज्ञान पुनः शून्य हुआ जग सारा।
क्या कहूँ कि अद्भुत रूप तुम्हारा।
शब्द शून्य ,गुणवाद शून्य
जगती के अस्थिर भाव शून्य
सुकृत -विकृति के  अर्थ  शून्य
अंधानुकरण के वाद शून्य
अहंकार विगत नहीं ,अहं शून्य
शून्यता के प्रतिमान शून्य ,
तथता के सब तथ्य शून्य
प्रभुता ,प्रांजलता हुई शून्य
नवता शून्य ,विभुता भी शून्य
मानव भव , मानवता -भाव शून्य
मिथ्या -अमिथ्या  -सार शून्य
निस्तार शून्य किनारा।
क्या कहूँ कि अद्भुत रूप तुम्हारा।
मैत्री ,मुदिता राग शून्य ,
अपनत्व शून्य ,परमार्थ शून्य
निजता के असत तुम तात शून्य
आत्म शून्य ,परमात्म शून्य
शून्य अशून्य, न स्वार्थ शून्य
शून्य हुआ सहारा।
क्या कहूँ कि अद्भुत रूप तुम्हारा।
दूरागत -समीपस्थ हुआ  शून्य
आगत भागत भाव शून्य
भावत अनुरक्ति सद्भाव शून्य
अध्यात्म, भक्ति - विभाव शून्य
शून्य आत्म का शून्य पसारा।
क्या कहूँ कि अद्भुत रूप तुम्हारा। …………अरविन्द


कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें