बुधवार, 17 अप्रैल 2013

हरि ॐ तत् सत्

         हरि ॐ तत् सत्
बाह्य रूप पुष्पित पल्वित 
भीतर सब शून्य असत्
हरि ॐ तत् सत् .

मृगतृष्णा में दौड़ते 
गिरते पड़ते त्रस्त 
नहीं ढूंढ़ पाए कोई 
जग का आदि सत्य .
हरि ॐ तत् सत्।

उगता सूरज देख कर 
दीपक दिया बुझा .
जिज्ञासा जीव की, नहीं 
करती प्रकाश की चाह .
भ्रम के झूले झूलता 
हो गया राम सत् .
हरि ॐ तत् सत् .

राम राम रटते हुए 
जीवन हुआ व्यतीत 
भव जाल में उलझ गया 
मेरा अन्तर मीत .
न मिल पाया राम को 
न पूर्ण हुआ काम .
अब जागे से क्या भया 
जब फिसल गया सब तत .
हरि ॐ तत् सत् .

विकारी यह संसार है 
नित रचता नव -नव रूप .
इच्छाओं की भीड़ में -
खो गया भूप अरूप .
अंधी सारी कामना 
अंधी सारी प्यास .
कुंभ -जल कैसे टिके 
जिसमें छिद्र हजार .
ऐसा ही यह जगत है 
ऐसी देह की लत .
हरि ॐ तत् सत् .

दौड़ दौड़ सब कर रहे 
कर्म ,क्रिया ,व्यवहार .
मिथ्या भव ,सच किसे प्रिय 
मिथ्या जगदाचार .
नश्वर सब उपलब्धियां 
अहंकार की हेतु -
मिथ्या जग के मर्म सब 
मिथ्या धर्म के केतु .
यही तो विडम्बना 
हम असत् मानते सत् .
हरि ॐ तत् सत् .

भव सागर के वक्ष पर 
नर्तत बूंद अपार .
बूंद बूंद का नाद यहाँ 
बूंद बूंद का घर्ष .
बूंद बूंद का भक्षण करे 
बूंद क्षुधा दुर्धर्ष .
बूंद बूंद ने रच लिया 
बिंद बिंद संसार .
सागर सुख के लिए -
दर्शन रचे अपार .
खंडन -मंडन निरत सब 
थोथा ज्ञान -विस्तार .
कब समझेंगें हम ,प्रभु 
सब क्रीडामय संसार 
लीला का यह जगत है 
लीला का प्रसार .
पूर्ण सत् में खेल रहा 
बूंद बूंद का सत् .
हरि ॐ तत् सत् !!..........अरविन्द 





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