हरि ॐ तत् सत्
बाह्य रूप पुष्पित पल्वित
भीतर सब शून्य असत्
हरि ॐ तत् सत् .
मृगतृष्णा में दौड़ते
गिरते पड़ते त्रस्त
नहीं ढूंढ़ पाए कोई
जग का आदि सत्य .
हरि ॐ तत् सत्।
उगता सूरज देख कर
दीपक दिया बुझा .
जिज्ञासा जीव की, नहीं
करती प्रकाश की चाह .
भ्रम के झूले झूलता
हो गया राम सत् .
हरि ॐ तत् सत् .
राम राम रटते हुए
जीवन हुआ व्यतीत
भव जाल में उलझ गया
मेरा अन्तर मीत .
न मिल पाया राम को
न पूर्ण हुआ काम .
अब जागे से क्या भया
जब फिसल गया सब तत .
हरि ॐ तत् सत् .
विकारी यह संसार है
नित रचता नव -नव रूप .
इच्छाओं की भीड़ में -
खो गया भूप अरूप .
अंधी सारी कामना
अंधी सारी प्यास .
कुंभ -जल कैसे टिके
जिसमें छिद्र हजार .
ऐसा ही यह जगत है
ऐसी देह की लत .
हरि ॐ तत् सत् .
दौड़ दौड़ सब कर रहे
कर्म ,क्रिया ,व्यवहार .
मिथ्या भव ,सच किसे प्रिय
मिथ्या जगदाचार .
नश्वर सब उपलब्धियां
अहंकार की हेतु -
मिथ्या जग के मर्म सब
मिथ्या धर्म के केतु .
यही तो विडम्बना
हम असत् मानते सत् .
हरि ॐ तत् सत् .
भव सागर के वक्ष पर
नर्तत बूंद अपार .
बूंद बूंद का नाद यहाँ
बूंद बूंद का घर्ष .
बूंद बूंद का भक्षण करे
बूंद क्षुधा दुर्धर्ष .
बूंद बूंद ने रच लिया
बिंद बिंद संसार .
सागर सुख के लिए -
दर्शन रचे अपार .
खंडन -मंडन निरत सब
थोथा ज्ञान -विस्तार .
कब समझेंगें हम ,प्रभु
सब क्रीडामय संसार
लीला का यह जगत है
लीला का प्रसार .
पूर्ण सत् में खेल रहा
बूंद बूंद का सत् .
हरि ॐ तत् सत् !!..........अरविन्द
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