बुधवार, 3 अप्रैल 2013

प्रभु ,अब क्यों मौन भये हो .

प्रभु ,अब क्यों मौन भये हो .

कहाँ गया संगीत मनोहर
कहाँ गयी सुरमयी तानें
कहाँ गयीं मनभावन बातें
कहाँ गयीं मधु मुस्कानें .
कहाँ छिपाया सुंदर आनन
अक्षय यौवन मधुरता में .
मैत्री भाव कहाँ है फेंका
कहाँ गयी मधु दृष्टि बन्नें .
न कालिंदी कूल मिले तुम
न सरयू सुंदर साकेत में
न जंगल में पाया तुमको
न पर्वत की प्यारी ओट में .

कदम्ब खड़ा तुम्हें पुकारे
तुलसी वन भी पुकारता .
बर्फीली घाटी में धाया -
शुभ्र नंदी अभी है जागता .
लगता है पछतावे में तुम -
अपने ही जग से भाग गए .
प्रभु अब क्यों मौन भये .

बहुतक मीठी बातें की थीं
बहुतक मुझे रिझाया था .
सुख की मृगतृष्णा में तूने
बहुतक मुझे फँसाया था .
तुमने कहा जगती सुंदर है
जा ,घूमो फिरो यायावर से
भोक्ता बनो जगआनन्द का
रूप ,शब्द ,रस सागर से .

तुम लहराते कहा करते थे --
जगती तुम्हारी प्रतिकृति है
प्रकृति तुम्हारी प्रतिकृति है
पहचानो इसे जग में जाकर
निकलो बाहर अक्षर ब्रह्म से .
बाहर आया बाहर न पाया
भीतर कहाँ छिपे हो तुम ?
अपने ही तुम अंश से भागे
कैसे पुरुष पुरातन  तुम ?
अंश सभी तो खेल रहे हैं
जाकर  तुम सो गए हो ?
प्रभु अब क्यों मौन भये हो .

हमने तेरी प्रतिकृति देखी
प्रकृति बहुत ही सुंदर है  .
सुंदर तेरी रचना सारी
 आकाश धरा सब सुंदर है
सुंदर पेड़  फूल पौधे हैं सुंदर 
पशु पक्षी सुंदर न्यारे हैं .
सुंदर बहता शीतल जल ये
सुंदर नदी झरने प्यारे हैं .


पर प्यारे ,तुमसे सुंदर --
नहीं प्रकृति सारी है
तुम सुंदर सुखद सनातन
प्रकृति मिथ्या मायाचारी है
दौड़ दौड़ कर खेल देख लिया
दौड़ दौड़ कर घर गृहस्थी
दौड़ दौड़ कर देह तपी यह
दौड़ दौड़ निकली अस्थि .
अब यह दौड़ तुम्हारे तक है
तुम बैठे क्यों मुहं छिपाए हो .
प्रभु अब क्यों मौन भये हो ........अरविन्द 











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