गुरुवार, 11 अप्रैल 2013

सूफी भाव : दो कविताएँ

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क्यों न तुझे फिर से सजाऊँ .

आकाश की थाली में चमकते
पूर्णिमा के चाँद को
उतार कर
तेरे माथे पर बिंदिया की तरह
लगाऊं .
क्यों न तुझे फिर से सजाऊं .

सप्त ऋषियों की मंडली को
अपने तप की तार में -
सहेज कर ,
तेरी मांग झिल्मिलाऊं .
क्यों न तुझे फिर से सजाऊं .

ध्रुव अकेला एकटक
झांकता रहता है आकाश में
उसे पकडूँ और
तेरी नासिका में बेसर पहनाऊ .
क्यों न तुझे फिर से सजाऊं .

उतार फैंको इन लौकिक
बुंदों को अपने
लम्बे पतले कानों से
चौथ के चाँद को
दो खण्डों में बांटूं
तेरे कानों के झुमके सजाऊं .
दुनिया को चौथ के चाँद की दीठ से बचाऊँ .

आकाश गंगा में अकारण
तैरते असंख्य अज्ञात तारे सितारे
कहो तो सही !
चुन चुन कर इन्हें
तेरे कलकंठ का हार बनाऊं .
तुम्हें फिर से सजाऊँ .

खामखाह ये राशियाँ
आकाश में हैं नाचती
इनके झपट लूँ चिन्ह
करघनी बनाऊं
तेरी केहरि कटि पर झुलाऊं .
क्यों न तुझे फिर से सजाऊं .

क्यों चिंता करती हो ,हे गौरी
करघनी में न वृश्चिक , न  कर्क होगी .
इन दोनों के  बिछुए बनाऊंगा

तेरे युग पाद -पद्म की उँगलियों में
चमकते दो अर्क सजाऊंगा .

लाऊंगा मांग गंगा से उसकी
सौम्य चंचलता को
मांगूंगा मैं यमुना से
उसकी श्यामल मंजुलता को
दोनों की पायल ,हे सखी
तेरे युग पाद में पहनाऊंगा .
बार बार तुम्हें फिर फिर सजाऊंगा .......अरविन्द 


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