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क्यों न तुझे फिर से सजाऊँ .
आकाश की थाली में चमकते
पूर्णिमा के चाँद को
उतार कर
तेरे माथे पर बिंदिया की तरह
लगाऊं .
क्यों न तुझे फिर से सजाऊं .
सप्त ऋषियों की मंडली को
अपने तप की तार में -
सहेज कर ,
तेरी मांग झिल्मिलाऊं .
क्यों न तुझे फिर से सजाऊं .
ध्रुव अकेला एकटक
झांकता रहता है आकाश में
उसे पकडूँ और
तेरी नासिका में बेसर पहनाऊ .
क्यों न तुझे फिर से सजाऊं .
उतार फैंको इन लौकिक
बुंदों को अपने
लम्बे पतले कानों से
चौथ के चाँद को
दो खण्डों में बांटूं
तेरे कानों के झुमके सजाऊं .
दुनिया को चौथ के चाँद की दीठ से बचाऊँ .
आकाश गंगा में अकारण
तैरते असंख्य अज्ञात तारे सितारे
कहो तो सही !
चुन चुन कर इन्हें
तेरे कलकंठ का हार बनाऊं .
तुम्हें फिर से सजाऊँ .
खामखाह ये राशियाँ
आकाश में हैं नाचती
इनके झपट लूँ चिन्ह
करघनी बनाऊं
तेरी केहरि कटि पर झुलाऊं .
क्यों न तुझे फिर से सजाऊं .
क्यों चिंता करती हो ,हे गौरी
करघनी में न वृश्चिक , न कर्क होगी .
इन दोनों के बिछुए बनाऊंगा
तेरे युग पाद -पद्म की उँगलियों में
चमकते दो अर्क सजाऊंगा .
लाऊंगा मांग गंगा से उसकी
सौम्य चंचलता को
मांगूंगा मैं यमुना से
उसकी श्यामल मंजुलता को
दोनों की पायल ,हे सखी
तेरे युग पाद में पहनाऊंगा .
बार बार तुम्हें फिर फिर सजाऊंगा .......अरविन्द
क्यों न तुझे फिर से सजाऊँ .
आकाश की थाली में चमकते
पूर्णिमा के चाँद को
उतार कर
तेरे माथे पर बिंदिया की तरह
लगाऊं .
क्यों न तुझे फिर से सजाऊं .
सप्त ऋषियों की मंडली को
अपने तप की तार में -
सहेज कर ,
तेरी मांग झिल्मिलाऊं .
क्यों न तुझे फिर से सजाऊं .
ध्रुव अकेला एकटक
झांकता रहता है आकाश में
उसे पकडूँ और
तेरी नासिका में बेसर पहनाऊ .
क्यों न तुझे फिर से सजाऊं .
उतार फैंको इन लौकिक
बुंदों को अपने
लम्बे पतले कानों से
चौथ के चाँद को
दो खण्डों में बांटूं
तेरे कानों के झुमके सजाऊं .
दुनिया को चौथ के चाँद की दीठ से बचाऊँ .
आकाश गंगा में अकारण
तैरते असंख्य अज्ञात तारे सितारे
कहो तो सही !
चुन चुन कर इन्हें
तेरे कलकंठ का हार बनाऊं .
तुम्हें फिर से सजाऊँ .
खामखाह ये राशियाँ
आकाश में हैं नाचती
इनके झपट लूँ चिन्ह
करघनी बनाऊं
तेरी केहरि कटि पर झुलाऊं .
क्यों न तुझे फिर से सजाऊं .
क्यों चिंता करती हो ,हे गौरी
करघनी में न वृश्चिक , न कर्क होगी .
इन दोनों के बिछुए बनाऊंगा
तेरे युग पाद -पद्म की उँगलियों में
चमकते दो अर्क सजाऊंगा .
लाऊंगा मांग गंगा से उसकी
सौम्य चंचलता को
मांगूंगा मैं यमुना से
उसकी श्यामल मंजुलता को
दोनों की पायल ,हे सखी
तेरे युग पाद में पहनाऊंगा .
बार बार तुम्हें फिर फिर सजाऊंगा .......अरविन्द
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