गुरुवार, 25 अप्रैल 2013

चलो चलें

तुमने कहा -"चलो चलें
ले आयें थोड़ी सी गुनगुनी धूप
थोडा सा दरख्तों का साया .
चीड़ की डाली पर लटकता चाँद .
या फिर तारों की मखमली चादर .
एक टुकड़ा जंगली पगडण्डी का .
या दूर तक फैली हरियाली .
रात की स्याही का काजल .
या टेढ़ा सा चाँद का कंगन .
तेरी आँखों की झील सी ठंडक .
या तेरी बाहों सा हसीन मौसम ---चलो चलें .
तेरी मेरी तपन की तड़पन को
मन की अंधियाली भटकन को
जगती से मिले संघर्षों के घर्षण को
बेगानी भीड़ में गुम हुए अपनेपन को
सुबह -शाम के सन्ध्या तर्पण को -
विश्राम दें ...चलो चलें .
पगडंडियों से रहित गहरी
जहाँ तलहटीयां हों .
उछल कूद करती पहाड़ी तन्वी सी
जहाँ नदियाँ हों .
अनजाने अचीन्हे वृक्षों की
जहाँ तरल सरल छईयां हो .
या बेले के फूलों की झुरमुट भरी
गलबहियाँ हों .
जहाँ कुदरत ने हमारे लिए
एकान्तिक आँगन रचे ....चलो चलें .
मुक्त हों आकाश से हम
न रहे कोई मर्यादा .
स्वत: तंत्र जीवन हो
चमके स्वयम्भू निर्बाधा .
बहुत देख लिए अब तक
जग के सब धंधे बंधे ये
चलो चलें निभृत एकांत में
किसी बेपरवाह परिंदे से ........अरविन्द 

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