शनिवार, 27 अप्रैल 2013

न चाहते हुए भी

सुनो !
हमने इन पहाड़ों की 
आकाश चूमने को लालायित
 चोटियों और गहरी तलहटियों में बिछी 
मखमली नदियों की तरलता में
 थोडा सा जी लिया है .
नारंगी संतरों की क्यारियों में
 नाचते हुए यौवन के 
मदमाते गीतों का 
रस भी पी लिया है .
.किन्नरों की भूमि में
 तारिकाओं से लिपटी रजनी के साथ --
 
उतरती परियों के सौन्दर्य को सँजो लिया है..
 ..नहीं सहेज पाए ,
तो पत्थर नहीं सहेजे हैं ,
उन्हें
 पहाड़ी बच्चों के 
खेलने के लिए छोड़ दिया है
 
बहुत कुछ बहुमूल्य समेट लिया है .
 
समेट लिया है हमने
 एक टुकड़ा भीगा आसमान
 विरह में बरसता एक बादल 
सुरीली चाँदनी रात में 
निर्वसना ठिठुरती सांवली शाम.
उगती हुई सुबह की लालिमा में
 चहचहाती चिड़ियों की चुनचुन
 घने लम्बे देवदारुओं की
 फैली भुजाओं से झरता सकून .
धरती पर नाचते ,गर्दन हिलाते
 लहराती हवा संग बतियाते 
रंग बिरंगी तितिलियों को ललचाते
 बहु वर्णी नन्हे फूल .
सब सहेज लिए हैं .
 
पैरों से सिर खुजलाती ,
व्यस्त गिलहरियों की मासूम आँखें .
साँप सी सरकती ,बलखाती
 निश्चिन्त सड़क का समर्पण .
ऊँचाई से नीचे गिरते --झरनों का शोर 
.पानी में छप -छप किलकारियाँ मारते
 बच्चों के उन्मुक्त ठहाके .
झुकी कमर ले चल रहे 
बूढी आँखों की बदहवासी .
सब समेट ली है .
 
न चाहते हुए भी लोटना पड़ रहा है
 उसी धुंधुआती नगरी में .
जहाँ दूसरों के कंधों पर
 सीढ़ियाँ लगाए शिकारियो की भीड़ है.
 
नृशंस आँखों के आतंक तले
मासूम बेबसी की चीख है .
गरीब की रोटी झपटने को
ललचाती लोमड़ियों की सीख है .
एकाक्षी कौओं की ,जहाँ
बेसुरी कांव कांव की रीत है .
उल्लुयों की लम्बी पांत और
भेड़िया धसान की नीति है .
न चाहते हुए भी लौटना पड़ रहा है .
व्यर्थता के अभिशाप से
मुक्त होने के लिए जहाँ
टुकड़ा टुकड़ा सुख तलाशते
भयभीत चित्त की
भित्ति है .
संदिग्ध आचरण की चादर में
लिपटे ,अंधे उपदेशकों की
भ्रम पूर्ण वाणी के
जंजाल में उलझी
अतृप्त आत्माओं की रीति है .
न चाहते हुए भी लौटना पड़ रहा है .........अरविन्द

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