शुक्रवार, 12 अप्रैल 2013

दूसरी कविता

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मन रे ! सूफी भव !!
नाच  अपने उस के लिए
जिसने दिया तुम्हें यह जग .
मन रे !सूफी भव !!

कर्म अपने देख ,किस कारण
किया उस सर्वांग सुंदर ने
तुम्हें अपने से अलग .
मन रे ! सूफी भव !!

लाख जप कर ,लाख तप कर
लाख रगड़ माथे .
लाख हठ कर ,लाख व्रत कर
लाख योग साधे .
प्रेम बिना कैसे मिले वह ,
जिसे तू आराधे .
वह तुम्हारी कल्पना
या जल्पना तेरी .
आत्मा का लिंग ही
परम प्रेमा भव .
मन रे ! सूफी भव !!

प्रेम में नहीं कर्म कोई
प्रेम अकर्ता भाव है .
प्रेम पूर्ण काम का
सर्वांग सुंदर श्रृंगार है .
प्रेम ने सृष्टि रची
सब प्रेम का विस्तार है .
क्यों न कहें हम उसे
वह प्रेम का आगार है .
प्रेम से सब कर समर्पित
तत्व दस तू हे सुभग .
मन रे ! सूफी भव !!

ले लगा अब लौ
जो दिखता भी है नहीं .
अदृश्य सत्ता स्वयंप्रकाशित
रूप प्रेयसी क्यों नहीं ?
पुरुष होकर पुरुष को
कैसे रिझा पायेगा तू
पत्थरों के संग कब तक
 प्रीत  रख पायेगा तू ?
प्रभु श्रेय प्रेय सी कोमलांगी
श्यामलांगी सनातनी
श्वेताभा ,अभ्रमा ,दिग्वसना श्यामा
निरभ्र कोमल कान्ति .
निर्भ्रान्त होकर स्व को टिका
तव सुकोमल अंक में .
सुख ,शांति सौन्दर्य का
वही तो है एक घर .
मन रे ! सूफी भव !!

कब तक भटकता भ्रमित हो
तीर्थाटन तू करे ?
अतृप्त कोमल वासना से
मुहर्मुह जन्मे और मरे?
कब तक देह के इस दंड को
भोगेगी तेरी आत्मा ?
मुक्त हो इस पींजरे से
हे व्याकुल परमात्मा !.
वह प्रतीक्षा में तुम्हारी
रात दिन है जागता
वह तुम्हारी विरह में
अहर्निश तुम्हें पुकारता .
कब सुनेगा उस परम का
आर्त राग ,हे जड़ -
मन रे !सूफी भव !!

वह लुभाये है तुम्हें
इन बादलों की आभ  में
मेह के संगीत में
बिजलियो के राग में
गरजते इस अम्बुधि की
छलछलाती  आग में .
अब तो उस पार निहार
जड़ भरत .
मन रे ! सूफी भव ! सूफी भव !!.....अरविन्द 

 

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