गुरुवार, 20 जून 2013

केदार की त्रासदी

केदार की त्रासदी ...प्रकृति का दोष नहीं है ....
जब हमनें पहाड़ों में ब्लास्ट करके उनकी जीवनी शक्ति छीन ली हो ,जब हम बाँध बना कर जल की गति का अवरोधन कर दें ,वृक्ष हमारे तथाकथित विकास की बलि चढ़ जाएँ ,तीर्थ स्थानों को हम पर्यटन स्थल बना लें ,जहाँ तप ,साधना ,यम -नियम आवश्यक हों वहां हम विहार करने की मनोवृति से जाएँ ,वहां प्रकृति के प्रकोप की संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता .
हम तीर्थ का अर्थ और यात्रा के पारंपरिक नियम भूल चुके हैं .जहाँ शुचिता आवश्यक है वहां मानवीय मल ,.. प्रकृति स्वीकार नहीं करती .
हम कितने असहाय ,बोनें और अदूरदर्शी हैं जिन्होंने अभी तक पहाड़ों की प्रकृति के अनुसार न तो सडकों का निर्माण किया है और न ही ऐसे पुल बना सके हैं ,जो पानी के प्रवाह को झेल सकें ..दिल्ली में सारा साल यमुना को हम गंदा करते हैं ,हर साल यमुना उसी गंदगी को वापिस हमें ही लौटा देती है ,क्यों नहीं हमारी सरकारों के प्रज्ञाचक्षु नदियों के प्रवाह को संरक्षित करते ?समाज भ्रष्ट हुआ है प्रकृति भ्रष्ट न हुई है और न ही भ्रष्टता को स्वीकार कर सकती है .
जब तक हम प्रकृति का शोषण और दोहन करते रहेंगे तब तक ये विनाश लीला भी होती रहेगी .
मुझे हिन्दुओं पर रोष और अफ़सोस हो रहा है क्योंकि इन्होंने कभी अपने तीर्थ स्थानों ,मंदिरों और देवताओं की स्वच्छता की ओर बिलकुल भी ध्यान नहीं दिया है .सभी मानवीय और प्राकृतिक नियमों की अवहेलना इनके मंदिरों और तीर्थों में देखि जा सकती है ..जो स्वयं सत्य से सुन्दर और सुन्दरता को सुरक्षित नहीं रख पाते ,तो शिव इनकी रक्षा क्यों करे ?
 सरकार और राजनीतिज्ञ अब कह रहे हैं कि केदार नाथ का रास्ता बनाने में और फिर से यात्रा आरम्भ करने में तीन साल लग जायेंगे ...किसी भी हिन्दू संघठन ने इस वक्तव्य पर आपत्ति नहीं की .कोई भी संघटन आगे आकर यह नहीं कह पाया कि हम अपने स्वयंसेवकों के साथ इस रास्ते को एक महीने में शुरू करेंगे .न किसी मठाधीश ने कहा और न किसी राजनीतिक दल ने ..
यह वह जाति है जो न अपने धर्म की ,न परम्परा की, न संस्कृति की , न संस्कारों की न अपने परमात्म विग्रह की रक्षा कर पायी है ,तो धर्म इस जाति की रक्षा क्यों करे ?ये लोग तो केवल अवतारों की प्रतीक्षा ही कर सकते है .इनका स्व -सामर्थ्य नष्ट हो चुका है ...कछुया मनोवृति ही पतन का कारण है और इसे ये छोड़ नहीं सकते ...काल इन्हें शेष करेगा हाथ ले कर्कश कशा .
इस मृत प्राय जाति में पुनर्जीवन कैसे लाया जाए ?कोई बिंदु नहीं सूझता ....फिर भी हाथ पर हाथ धर कर बैठा नहीं जा सकता ..इन्हें चींटियो से शिक्षा लेनी चाहिए, जो संकट के समय अपनी जाति की रक्षा के लिए, ये नहीं देखतीं की उनके द्वारा उठाया गया अंडा किसका है .....अरविन्द

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