गुरुवार, 13 मार्च 2014

रास्ता ही कहीं नहीं

रास्ता ही कहीं नहीं मिल रहा। गुरुओं की भीड़ है ,पर सत्य संस्पर्शन नहीं। माया और प्रपंच इतना सघन होगा ,नहीं जानता था। तलाश समाप्त नहीं की है। शबरी भी तो प्रतीक्षा करती रही। आशा है ,पर निराशा भी है। क्या कहीं औपनिषदिक ऋषि गुरु हैं ?संसार जान लिया ,अध्यात्म सुन लिया ,भौतिकता के भी दर्शन हुए। शांति भी है। पर जिज्ञासा शांत नहीं हुई। प्रश्न समाप्त नहीं हुए। क्या करें ,क्या न करें --सब कुछ करने के बाद भी निश्चित नहीं हूँ। धर्म में व्यवसाय को स्वीकार नहीं कर पा रहा हूँ। सम्प्रदायों की भीड़ ,उपदेशकों की भीड़ ,असंतुष्टों की भीड़ ,मंदिरों में भीड़ ,आश्रमों की भीड़ ,पाखंडियों की भीड़ ,झूठों की भीड़ ,दम्भी और अहंकारियों की भीड़। क्या कहीं सत्य है भी ?नाचते हुए लोग ,कर्मकांडों में उलझाये हुए लोग ,शोषित और प्रताड़ित लोग ,आंतरिक मांगों के जंजाल में फंसे लोग ,माथे पर फल लगा कर वर देते झूठे उपदेशक।  परमात्मा भीतर ,सत्य भीतर ,सद्गुरु भीतर ,ज्ञान भीतर ,गुण भीतर ,प्रेम भीतर ,उपासना भीतर ,इष्ट भीतर,ध्यान भीतर ,उपलब्धि भीतर ,जप भीतर ,मन्त्र भीतर --तो भी बाहर भटकते लोग ---वाह ! मेरे प्रभु !! वाह तेरी लीला। माया का संसार है ,माया भीतर संत। माया के दरबार में मायिक पूरा कंत।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें