आज के धार्मिक ,भक्ति मार्गी और आध्यात्मिक
मार्गों ,सम्प्रदायों की पद्धतियों को समझना दर्शन ,विश्लेषण और आत्म -लाभ
के लिए आवश्यक है। हालाँकि हमारे शास्त्रों ने बेहद ईमानदारी से इस विषय
में चिंतन किया है और प्रभावशाली निष्कर्ष भी दिए हैं ,तो भी वर्त्तमान
चिंतन में बैसी गम्भीरता दिखायी नहीं दे रही है। जैसे जीवन अपना है ,वैसी
ही परमात्म -तत्व भी अपना है ,तो अपने की परीक्षा करना ,समीक्षा करना या
शोधन करना भी हमारा ही कर्त्तव्य है ,ताकि हम अपने आत्म -परक दृष्टिकोण को
दिशा, क्षिप्रता और गति दे सकें।
मैं यह नहीं कहता कि संतों का
अकाल पड़ गया है ,मैं यह भी नहीं कहता कि ईमानदार ,त्यागी ,तपस्वी
,निस्वार्थी ,सर्व जन प्रेमी ,निस्पृह और सर्व कल्याणकारी संत नहीं हैं।
हैं ,परन्तु हमारा भी कर्म है कि हम स्वयं भी शास्त्र का आलोड़न करें और
आत्म निर्भर हीकर आत्म अनुसन्धान करें। लोक में जो कहा जा रहा है या जो
व्याख्याएं या उद्बोधन दिए जा रहे हैं --क्या वे सत्य और शास्त्र की संगति
में हैं या संत के साक्षात् व्यक्तिगत अनुभव हैं। प्रश्न उठाना न तो बुरा
है और न ही प्रश्न अप्रसांगिक हो सकते हैं। हर युग और हर छोटे बड़े सत्य
साधक ने प्रश्न किये हैं और ऋषियों ने ,संतों ने ,साधकों ने ,तपस्वियों ने
उनके प्रश्नो के उत्तर भी दिए हैं। जबकि आजकल प्रश्न करने वाले ,समीक्षा या
जिज्ञासा करने वाले आम सम्प्रदायों में स्वीकृत नहीं। इसीलिए इस मार्ग में
केवल व्यक्ति समक्ष समर्पण को ही प्रमुखता दी जा रही है और कुछ संत अपनी
नैतिकता ,शुचिता को भी खो चुके हैं। सत्य के प्रति प्रेम को कटुता माना
जाने लगा है।
सो ,यह जरुरी हो जाता है कि हम चाहे गृहस्थी हैं
,तो जो भी हमें उपदेश दिया जा रहा है ,उसकी प्रमाणिकता को तो परखें। हम
खाने पीने ,जीने ,पहनने में शुद्ध को चाहते हैं तो ज्ञान और भक्ति में
शुद्धि की इच्छा क्यों न हो ?
गीता में अध्यात्म मार्गियों के लियर एक स्पष्ट संकेत है --- "स्वभावः अध्यात्म "---इसे समझते हैं।
कृष्ण
संकेत करते हैं कि प्रत्येक साधना का जो स्वाभाविक मार्ग है ,व्ही श्रेष्ठ
है। कृत्रिम उपायों से भी कर्म ,ज्ञान ,प्रेम अथवा भक्ति की साधना होती है
,परन्तु वह आभास -रूप मात्र है। यथार्थ साधना स्वभाव आधारित भाव साधना है।
भाव साधना स्वभाव की साधना है। शास्त्र का कोई विधि निषेध इस पर लागू नहीं
होता --कितन बड़ी सुविधा है। स्वभाव का अर्थ है --निज भाव। पूर्ण मौलिकता
--मौलिक के साक्षात् के लिए मौलिक तो होना ही होगा और उस मौलिकता को अधिगत
करने का रास्ता केवल स्वभाव से ही प्रस्फुटित होता है ,किसी के कहने से
नहीं । श्रेष्ठ गुरु केवल स्वभाव की ओर संकेत करता है। बस ,और कुछ नहीं।
स्वभाव
की प्राप्ति --जब तक देह का अभिमान रहता है या माया अथवा आवरण और चैत्तिक
विक्षेप रहता है ,तब तक उपलब्ध नहीं हो सकती। न हम अपने अभीष्ट से प्रेम कर
सकते हैं ,न तब तक भाव में ही उतर सकते हैं। जो ,आधुनिक साधनात्मक
क्षेत्र में ध्यान साधना करवायी जाती है ---उसमें आदेश दिए जाते हैं --यह
ध्यान नहीं ,केवल मिसमरेजुम है।
माया के आवरण से हमारा स्वभाव
आच्छन्न है। हमें सबसे पहले इस आवरण को हटाना है। इस आवरण को हटाने के लिए
कुछ उपाय हैं ,यथा --नाम स्मरण ,मन्त्र ,दीक्षा ,प्रभु कृपा ,आंतरिकता
,उपासना ,स्व -संशोधन और साधन -सुचिता। दैहिक शुचिता नहीं और कहीं- कहीं
कार्मिक शुद्धता की भी आवश्यकता इतनी ज्यादा नहीं है। नीच और निकृष्ट
कर्मों में भी परमात्म -कृपा और दर्शन हुआ है। अनेक उदहारण विद्यमान हैं।
………… इन उपायों पर शास्त्र के संकेतों का आलोड़न क्रमशः करेंगे ,ताकि हम
सत्य के समीप जा सकें और भ्रम तथा माया से मुक्त हो सकें। …………अरविन्द
पराशर। ९ -३ -२०१४।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें