अध्यात्म -दर्शन
मेरे कुछ
मित्र बड़ी शिद्दत के साथ अध्यात्म मार्ग के पथिक हुए हैं। आजकल अध्यात्म की
दुकानों का बाजार भी सजा हुआ है। ऐसे में कुछ तत्व स्पष्ट करना भी जरूरी
है। सबसे पहले यह समझना चाहिए कि अध्यात्म क्या नहीं है। प्रवचन अध्यात्म
नहीं ,पूजा ,आरती ,कीर्तन ,सामूहिक नाच गान ,तालियां --अध्यात्म नहीं है। न
ही इस मार्ग पर इनकी आवश्यकता है क्योंकि अध्यात्म आंतरिक और व्यक्तिगत
,निजी आत्म यात्रा है। यही हमारा निसर्ग भी है। हम तब तक जन्म लेते रहेंगे
जब तक हम इस मार्ग के पथिक ईमानदारी से नहीं होते हैं। मंदिर ,पूजा
,कीर्तन, भजन ,कर्मकाण्ड सब इसी यात्रा की आरंभिक तैयारी है। उपकरण हैं। साध्य कुछ और है। तो प्रश्न उठता है कि अध्यात्म का यंत्र क्या है। ,साधन विचारणीय है।
सबसे
पहले हमें यह स्वीकार लेना चाहिए कि प्रभु सर्वान्तर्यामी है। व्यापक और
अंतरंग- बाह्य सर्वत्र विदयमान है और अत्यंत समीपस्थ है। इन्हें किस
यंत्र के द्वारा अपने में उत्थापित करें ,यही अध्यात्म का प्रश्न है और
होना भी चाहिए। शरीर क्षेत्र है जिसमें हमारा मन ही एकमात्र इस यात्रा का
साधन अथवा यंत्र है। हमें मन के द्वारा ही इष्ट -सिद्धि करनी होगी। एक अन्य
महत्वपूर्ण बिंदु समझना चाहिए कि इस मन की आवश्यकता तभी तक है जब तक जीव
स्वाधीनता लाभ नहीं करता। कर्म ,ज्ञान ,भक्ति --इनमें से प्रत्येक में मन
की आवश्यकता है। इसलिए पहली अवस्था में मन को निरुद्ध करने की चेष्टा नहीं
करनी चाहिए। क्योंकि करने पर भी हम सफल नहीं होंगे। अनेक उदाहरण विदयमान
हैं।
हम मन को डुबाने के लिए कृत्रिम चेष्टा करते हैं --इसी
कृत्रिम चेष्टा से हानि भी होती है। मन को त्याग करने की चेष्टा न कर
,शुद्ध करने पर ,यह समझ आएगा कि साधक के अध्यात्म जीवन में मन का क्या
उपयोग है। अवशीभूत मलिन मन ही साधक का शत्रु है ,स्वायत और निर्मल मन ही
उसका मित्र है। परम मित्र है।
मन सर्वदा ही चंचल है ,सर्वदा ही अस्थिर है और सर्वदा ही भ्रमणशील है। इसका एक मुख्य कारण यह है कि मन में सदा एक अभाव
विदयमान रहता है। एक अस्पष्ट और विपुल अतृप्ति उसको शांत नहीं रहने देती।
इस विपुल अतृप्ति का अर्थ है कि मन कुछ मांगता है। मन की कोई गहरी मांग
है। जब तक हम मन की इस मांग को नहीं समझते हैं तब तक मन का यह यंत्र हमारे
लिए काम ही नहीं करता बल्कि हमें ही अपना दास बना लेता है।
तो मन
क्या मांगता है ?मन की केवल तीन मांगें हैं। मन मांगता है ज्ञान ,आनन्द और
ऐश्वर्य। यही मन की खाद्य सामग्री है। इसको न पाकर मन निरन्तर हाहाकार कर
रहा है। अधिकाँश लोग इन नैसर्गिक मांग के विषय में नहीं जानते। गलदश्रु
भावुकता में आप देखते होंगे। अतः यह निश्चित है कि जब तक हम मन की इस
क्षुधा को तृप्त नहीं करते तब तक चंचलता ,गति ,अस्थिरता और बेचैनी बनी
रहेगी।
मन जो मांगता है ,वह है कहाँ ? उसका स्वरुप क्या है ?
उसकी उपलब्धि कैसे होगी ?यह हमारे अगले प्रश्न होंगे। इन प्रश्नों पर
विस्तार से विचार करेंगे क्योंकि हम एक ही मार्ग के सहयात्री हैं।
-----------------------------------------------आचार्य डॉ अरविन्द पराशर
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