सोमवार, 17 मार्च 2014

कब तक ?

कब तक खुद को छिपाते रहेंगे
दर्पण दूजे को हम दिखाते रहेंगे
झुर्रियाँ अपनी ही सजाते रहेंगे
उलझी लटों  कोसुलझाते रहेंगे ?
कब तक ?
बंदरों से नाच हम नचते रहेंगे
दूसरों का जीवन ही जीते रहेंगे
सत्य से अपने ही भागते रहेंगे
मन की बातों को हम न सुनेंगे ?
कब तक ?
भोगे का भोग यूँ  लुभाता रहेगा
दिल की तड़प को छिपाता रहेगा
पढ़ी हुई पुस्तक पढ़ाता  रहेगा
बीते हुए समय को जीता रहेगा ?
कब तक ?
कब खुलेगी तेरी मुंदी हुई आँखें
कब हटेगा मोह का झीना परदा
कब जीयोगे जीवन यह अपना
कब कहोगे अंतर्मन का  सपना ?
कब तक ?
अनचाहे भार पशु सा ढोते रहोगे
सुविधा के सुखों में खोते  रहोगे
मृगतृष्णा जगत भटकते रहोगे
जागो प्रभु ! क्या तड़पते रहोगे ?
कब तक ?---------------------------------------अरविन्द


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